Sunday, September 11, 2022

Imre Kertész - हंगेरियन गद्य का हिन्दी अनुवाद

 



 2002 साहित्य के नोबल पुरस्कार से सम्मानित हंगेरियन लेखक Imre Kertész  के गद्यांश का आंशिक अनुवाद -


वृद्ध अल्मारी के आगे बैठा हुआ था और पढ़ रहा था। 


" अगस्त ,1973 , 

जो हो गया सो हो गया ; अब मैं  इसमें  कुछ नहीं कर सकता। अपने अतीत को मैं ठीक उसी तरह नहीं बदल सकता जैसे कि अपने निर्धारित भविष्य को , जिससे मैं अभी तक अनभिज्ञ हूँ। "


- हे ईश्वर , तू तो सर्वशतक्तिमान है ना ! वृद्ध ने ऊँची आवाज़ में कहा था ।  


" अपने वर्तमान के तंग दायरे में , मैं उतनी ही दिशाविहीनता से  आगे बढ़ता हूँ जितना कि अपने अतीत या फिर भविष्य से ......

यहाँ तक कैसे पहुँचा नहीं मालूम । अपना बचपन व्यर्थ गवां दिया। आख़िर अपनी माध्यमिक कक्षाओं में एक बुरा विद्यार्थी बन कर क्यों रह गया ?

इसके ज़रूर कुछ मनोवैज्ञानिक कारण रहे होंगे।  ( तुम्हारा यह बहाना भी भी नहीं चलेगा कि तुम मूर्ख हो क्योंकि तुम्हारे पास अक़्ल है ,- मेरे पिता मुझसे अक्सर कहा करते थे ) बाद में  १४ या १४-१/२ की उम्र में , बेहद  हास्यप्रद  परिस्थितियों में , लगभग आधे घंटे की लम्बी अवधि तक गोलियों से भरी मशीनगन की ठंडी नली मुझ पर तनी रही  थी।  इन परिस्थितियों को साधारण भाषा में ब्यान करना असंभव है।  इतना ही काफी है कि मैं सशस्त्र पुलिसकर्मियों के बैरकों के तंग गलियारें में खड़ा था और भय से मेरे पसीने छूट रहे थे और किसे मालूम कि उन अस्त व्यस्त विचार- श्रृंखला की   एक कड़ी ने मुझे उस भीड़ से सिर्फ इसलिए जोड़ रखा था कि उनकी तरह मैं भी एक यहूदी हूँ। क्रिस्टल कि तरह साफ़ फूलों की सुगंध वाली गर्मियों की रात थी और हमारे ऊपर पूर्णिमा का चाँद चमक रहा था। हवा में रह रह कर भिनभिनाहट की आवाज़ गूँज रही थी - यक़ीनन इतालियन एयर बेसिस से उठी रॉयल एयर फोर्स के जहाज़ों की टुकड़ी अनजाने लक्ष्यों की तरफ बढ़ रही थी और खतरा यही था कि अगर उन्होंने बैटकुस या उसके आस - पास बम गिराए तो पुलिस हम सबको गोलियों से भून देगी। लेकिन इस सन्दर्भों और कारणों पर विचार करना मुझे तब भी उतना ही ग़ैरज़रूरी  लगा था जितना कि अब ..।  मशीनगन कैमरे स्टैंड से मिलते जुलते एक स्टैंड पर रखी थी।  मंचनुमा चौकी पर कोई मोटी मूँछ वाला सशस्त्र पुलिसकर्मी निशाना साधे खड़ा था ।  मशीनगन की नली एक हास्यप्रद कुप्पीनुमा पुर्जे से जुडी थी जिसे देख का मुझे अपनी दादी की आटे की  चक्की याद आ गयी।  हम इन्तिज़ार कर रहे थे।  भिनभिनाहट की आवाज़ आग गर्जन में बदल गयी थी और उसके बाद फिर भिनभिनाहट , शुरू की ख़ामोशी एक एक गूंगे अंतराल के बाद भिनभिनाहट में तब्दील हो जाती और बाद में बड़े गर्जन में बदल जाती।  बम गिराए या नहीं सवाल यही था।  धीरे धीरे पुलिसकर्मियों पर जुआरियों का सा पागल उन्माद सवार हो रहा था।  उस आकस्मिक ख़ुशी को मैं शब्दों में कैसे ढालूँ जोकि मेरे पहले आश्चर्य  के बाद मेरे अंदर भी छा गयी थी।  मुझे इस छोटे से दांव  को समझना चाहिए  था जिससे से एक हद तक में भी खेल का मज़ा ले पात।  अपने दुनिया के इस छोटे से रहस्य को मैं समझ गया कि मुझे कही भी , कभी भी गोलियों से भूना जा सकता है।  हो सकता है कि ये ...।  "

" ईश्वर की ऐसी की तैसी " वृद्ध पढ़ते पढ़ते रुक गया था और इसी बीच  उसने अल्मारी की तरफ हाथ बढ़ाया था। इस अजीब परिवर्तन का कारण एक आकस्मिक घटना थी जिसे आकस्मिक भी नहीं कहा जा सकता ( क्योकि यह घटना रोज़ एक नियम की तरह घटती थी )और जिस घटना की पुनरावृति ने हमारी आँखों के सामने वृद्ध पर गहरा असर डाला था , वास्तव में सटीक स्पष्टीकरण को हम रोक नहीं सकते।  हमें स्वीकार करना चाहिए कि यह कर्त्तव्य अपने आप में हमें शर्मसार करने वाला है। 


हम कुल मिला कर यही कह सकते है कि ईश्वर को दी उसकी गाली के लिए , उसके पेट में उठती मरोड़ों के लिए, उसकी उस थोड़ी से उल्टी के लिए जो एक  लिफ़्ट की  तरह उसकी छाती और गले से ऊपर उसकी गर्दन तक आयी थी और इन सब तथ्यों के लिए यह स्पष्टीकरण काफी नहीं है कि उसके ऊपर वाली मंज़िल में किसी ने रेडियो खोल दिया था। 



अनुवादक : इन्दुकांत आंगिरस 


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