अर्ज़ी
यजमान ने पंडित जी के घर का दरवाज़ा खटखटाया। यजमान को सामने खड़ा देख पंडित जी ने मुस्कुराते हुए उसका स्वागत किया और उसे अपने कार्यालय में ले गए। कार्यालय के दीवारों पर हिन्दू देवी - देवताओं की रंगीन तस्वीरें मद्धम रौशनी में जगमगा रही थी। अगरबत्ती की ख़ुश्बू वातावरण में तैर रही थी। पंडित जी अपनी गद्दी पर विराजमान हो मंद मंद मुस्कुरा रहे थे मानों उन्हें यजमान के सब दुखों की जानकारी है और वो जानते है कि यजमान से कितने पैसे आसानी से निकलवाए जा सकते हैं। यजमान दोनों हाथ जोड़े पंडित जी को अपलक देख रहा था। आख़िरकार पंडित जी ने मौन तोडा -
" घबरा मत बच्चे ! सब ठीक हो जायेगा , बस अर्ज़ी लगानी पड़ेगी ..."
" अर्ज़ी कहाँ लगानी पड़ेगी पंडित जी " - यजमान ने उत्सुकता से पूछा।
पंडित जी ने दीवार पर लगी संत आशाराम की तस्वीर की ओर इशारा कर दिया।
संत आशाराम , यजमान के लिए नए थे सो जल्दी से पंडित जी से पूछा - "इनका दफ़्तर कहाँ है पंडित जी ?"
पंडित जी ने तत्काल संत आशाराम के मंदिर की लोकेशन यजमान के व्ट्सअप्प पर भेज दी।
यजमान ने धीरे से एक भारी लिफ़ाफ़ा पंडित जी की ओर सरकाया और ख़ुशी ख़ुशी अपनी अर्ज़ी बनाने लगा।
लेखक - इन्दुकांत आंगिरस
आज के युग में न ऐसे पंडितों की कमी है न ऐसे यजमानों की।
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