Tuesday, September 27, 2022

हंगेरियन गद्य का हिन्दी अनुवाद

 


(  पुराने काग़ज़ों में मिल गया अचानक हंगेरियन गद्य का यह आंशिक अनुवाद , क़लमबद्ध कर दिया है अब , आप भी लुत्फ़ उठायें। )


और तब उसने सिर्फ एक बार एक नए अध्याय की तरह अपने पिता को एक पृथक वस्तु के रूप में देखा था , एक शरीर , एक विशिष्ट कोशिकाओं की इमारत " नी द गिवसेन्ट " वह रचना , एक असम्भावी रचना , एक ऐसे चमत्कार की तरह थी , जिसकी मिसाल कही नहीं मिलती , न ही इस ज़मीन पर न ही चाँद पर और न ही स्वर्ग में।  उसने अपने पिता का एक  सिलसिलेवार तरीके से मुआयना शुरू किया , सिर से पैर  तक उसके व्यक्तित्व के हर पहलू को ग़ौर से देखा , पहले सिर के बालों को अलग से और बाद में उनकी लटों को जोकि पुरानी तस्वीरों की लटों से मिलती - जुलती थी।  हर आने वाली याद का सम्बन्ध दूसरी याद से जुड़ता गया , उनकी वह चाल , हज़ार बनावटों वाला चेहरा और यादें गहराती गयी , बचपन के क़िस्से , स्टेशन , अलविदा , मौजमस्ती , उनके गाल की हड्डी की हरकत और इस तरह पिता की अनगिनत तस्वीरें उभरती गयी।  ( ३१७ )


मेरे पिता पिछले दस साल से अपने सबसे बड़े पुत्र से पूछते रहे थे कि अगर उनके चेहरे पर बुढ़ापे की लकीरे उभरे तो वह उन्हें बताएगा। पुत्र ने भीगी आँखों से वा 'दा किया था।  लेकिन जब उसके पिता बुजुर्ग होने लगे थे तो उसने एक गँवार मूर्खता और अक्खड़पन से तीन बार अपने पिता को बताया था और उसके पिता ने उसे बुरी तरह अपमानित कर दिया था, वह समझ गया था कि इस बारे में अब वह कभी नहीं बोलेगा।  अब कभी नहीं। अगर बताना ज़रूरी होगा तब भी नहीं , हाँ , बस तभी बताएगा जब ज़रूरी न हो।  ( २०० )


मेरे पिता बुजुर्ग हो गए थे लेकिन अब भी वे अपनी उम्र से छोटे लगते थे , सबसे छोटे लड़के से भी छोटे यक़ीन मानिए जोकि सबसे लम्बी लड़की से भी लम्बा था। अब अपनी दाढ़ी बहुत कम बनाते थे और उनके होंठो पर चकत्ते उभर आये थे जिसके बारे में उनका कहना था कि  वो ज़ायकेदार खाने की वज्ह से हैं। लेकिन यह सच नहीं ( कि हमेशा ज़ायकेदार खाना इसकी वज्ह हो ) उनकी एक नई प्रेमिका है जोकि पेशे से गणितज्ञ है....।  ( २०१ )


मेरे पिता बुजुर्ग हो गए थे लेकिन पहले से भी अधिक सिकुड़ गए थे , लेकिन अब इसमें मेरी दिलचस्पी नहीं , वह ख़ुद नहीं समझ पाते थे कि क्या बोल रहे है , बस बुदबुदाते रहते थे , लेकिन अब यह सब बेमानी है , अचानक सम्पूर्ण वाक्य बोलना शुरू कर देते थे - कर्त्ता , विधेय , पूरक ...जोकि अपनी ज़िंदगी में वो कभी नहीं बने , बस हमेशा शब्दों कि छुरी मारी , यक़ीनन दिलचस्प रस्में, दिलचस्प चतुराई , लेकिन अब सब बेकार है , बल्कि एक पंछी की तरह उनका वज़न कम हो गया , साढ़े तिरासी ( ८३.५ ) किलो ...नहीं ...अस्सी  ( ८० ) किलो ...नहीं साठ ( ६० ) किलो भी नहीं बल्कि कपडे , जूते और चश्मे के साथ सिर्फ बावन ( ५२ ) किलो ..।  ( २०२ )



मूल लेखक - Péter Esterházy

जन्म -  14 April 1950, Budapest, Hungary

निधन -  14 July 2016, Budapest, Hungary



अनुवाद - इन्दुकांत आंगिरस 



NOTE : सं २०११ में हंगेरियन ट्रांसलेशन हाउस द्वारा बुदापैश्त   में  आयोजित अनुवाद की एक वर्कशॉप में उनसे रू ब रू होने का सौभाग्य मिला था।





जन्मभूमि का गीत - चेख कविता का हिंदी अनुवाद

 जन्मभूमि का गीत 


मोदरांस्क के प्रसिद्ध बर्तनों पर 

नक़्क़ाशे ख़ूबसूरत फूलों के मानिंद 

तुम्हारी अपनी माटी , अपना देश है यह !


मीठी ब्रेड के सीने में ,भीतर तक घुपा चाकू  

सैकड़ों बार निराशाओं में घिर कर 

भटके मुसाफ़िर की तरह लौटते अपने घर 

हसीं वादियों वाला अपना दुलारा देश 

मुरझाये फूलों वाला वसंत - सा बेचारा देश। 


मोदरांस्क के प्रसिद्ध बर्तनों पर 

नक़्क़ाशे ख़ूबसूरत फूलों के मानिंद 

तुम्हारी अपनी माटी , अपना देश है यह !


अपने ही अपराध बोझ से बोझिल 

तुम्हें भुला न पायेगी ये माटी  

अंतिम सफ़र में साथ तुम्हारे 

कहेगी अलविदा ये माटी। 


मोदरांस्क के प्रसिद्ध बर्तनों पर 

नक़्क़ाशे ख़ूबसूरत फूलों के मानिंद 

तुम्हारी अपनी माटी , अपना देश है यह !


मूल कवि - Jaroslav Seifert  ( 1984 , Noble Prize in Literature )

निधन : 10 January 1986, Prague, Czechia

अनुवाद - इन्दुकांत आंगिरस 

 

Friday, September 23, 2022

महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और हम


                                                             सूर्यकांत त्रिपाठी निराला



छायावाद के प्रमुख कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का जन्म बंगाल के मेदनीपुर गाँव में हुआ था और उनका निधन इलाहबाद में हुआ था। 


"वह तोड़ती पत्थर - इलाहबाद के पथ पर " , जैसी कवितायेँ लिखने वाले निराला ग़रीब और मज़दूरों की पीड़ा को अपने भीतर महसूस करते थे। सामजिक सरोकारों पर कविताएँ लिखने वाले निराला जितने बड़े कवि थे , उससे बड़े एक इंसान थे।  दूसरों के दुःख से द्रवित हो जाते और अक्सर अपनी निजी वस्तुएं ग़रीब लोगो को बाँट देते।  उन्होंने कभी किसी सम्मान की चाह नहीं  करी।  उनका सम्पूर्ण  जीवन अभावों में गुज़रा।  बचपन में ही माँ  की मृत्य , युवा अवस्था में पिता और बाद में पत्नी व पुत्री की अकाल मृत्यु ने उन्हें तोड़ कर रख दिया था। 


"दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ आज, जो नहीं कही"


यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे अपने बचपन से ही निराला साहित्य पढ़ने का अवसर मिला क्योंकि मेरे पिता कीर्तिशेष डॉ रमेश कुमार आंगिरस ने " निराला काव्य का मनोवैज्ञानिक अध्ययन " विषय पर Phd करी थी और निराला से सम्बंधित बहुत सी पुस्तकें घर पर ही उपलब्ध थी। 

कम उम्र में बहुत सी क्लिष्ट कवितायेँ समझ नहीं आती थी लेकिन उनको बार बार पढ़ने का आनंद मिलता ही रहता था।  बहुत सी कवितायेँ तो कंठस्थ हो गयी थी और उन कविताओं को पढ़ कर या गुनगुना कर आत्मिक आनंद अनुभव करता था। 


एक बार JNU में प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह के घर पर जाने का अवसर मिला।  उनकी बैठक में महाप्राण निराला की एक श्वेत -श्याम तस्वीर दीवार पर टँगी थी।  इसी से इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला कितने लोकप्रिय कवि थे। निराला पर अनेक लेखकों ने शोध ग्रन्थ लिखे , बल्कि यूँ समझिये कि निराला पर  पुस्तक लिख कर लेखक अपने आप को स्थापित करना चाहता है। 

निराला की कालजयी रचनाएँ   - " राम की शक्ति पूजा " और  " सरोज स्मृति " आज भी अपने आप में बेमिसाल है। 

वसंत पर अनेक कवियों की रचनाएँ हैं लेकिन वसंत पर लिखी निराला की कवितायेँ  अद्भुत हैं। बानगी के रूप में चंद पंक्तियाँ देखें 

सखि वसन्त आया 

भरा हर्ष वन के मन

नवोत्कर्ष छाया 

किसलय-वसना नव-वय-लतिका

मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका,

मधुप-वृन्द बन्दी

पिक-स्वर नभ सरसाया। 


निराला की मातृभाषा बांग्ला थी और हिन्दी उन्होंने "सरस्वती" पत्रिका से सीखी। हिन्दी सीखने के बाद उन्होंने हिन्दी साहित्य को बेमिसाल रचनाएँ दी जिसके लिए हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य सदा उनका आभारी रहेगा।  वास्तव में उन्होंने हिन्दी को बहुत कुछ दिया लेकिन हिन्दी ने उन्हें कुछ नहीं , हिंदी आज भी उनकी ऋणी है और  हमेशा रहेगी। एक बार महात्मा गांधी ने एक वक्तव्य में यह कह दिया कि हिन्दी में आज तक कोई टैगोर पैदा नहीं हुआ।  इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप निराला ने गांधी से सीधा प्रश्न पूछा कि क्या उन्होंने निराला को पढ़ा है , अगर नहीं तो वे ऐसा वक्तव्य कैसे दे सकते है। 


सूर्यकांत त्रिपाठी निराला अत्यंत स्वाभिमानी और  फक्कड़ किस्म के साहित्यकार थे।  उन्होंने स्वयं कभी अपना प्रचार नहीं किया।  उनका मानना था कि गिर कर कभी कुछ न उठाए फिर चाहे वो कविता ही क्यों न हो।  उनका व्यक्तित्व और कृतित्व आज भी करोड़ो पाठको को अभिभूत करता है।  वास्तव में उन जैसे सरस्वती पुत्र ईश्वर की देन  ही होते हैं। पुरानी कहावत है कि साधु-संतो की संगत से हमारी आत्मा परिष्कृत होती है।  निराला भी एक ऐसे ही साधु , संत , कवि और फ़क़ीर थे जिनकी संगत से मन पुलकित हो उठता था।  वे सभी लोग बहुत ख़ुशनसीब हैं या रहे होंगे जिन्हें निराला के साथ उठने -बैठने का अवसर मिला।  वास्तव में निराला की आत्मा के वसंत की ख़ुश्बू   आज भी उतनी ही तरो - ताज़ा है जितनी  उनके जीवन काल में थी और ये ख़ुश्बू आपको उनकी कविताओं और रचनाओं में मिल जाएगी। अगर आप ने आज तक निराला को नहीं पढ़ा है तो ज़रूर पढ़े क्योंकि उनकी रचनाएँ आपकी आत्मा में सोये वसंत को जगा सकती है। 


लेखक - इन्दुकांत आंगिरस  


Sunday, September 11, 2022

Imre Kertész - हंगेरियन गद्य का हिन्दी अनुवाद

 



 2002 साहित्य के नोबल पुरस्कार से सम्मानित हंगेरियन लेखक Imre Kertész  के गद्यांश का आंशिक अनुवाद -


वृद्ध अल्मारी के आगे बैठा हुआ था और पढ़ रहा था। 


" अगस्त ,1973 , 

जो हो गया सो हो गया ; अब मैं  इसमें  कुछ नहीं कर सकता। अपने अतीत को मैं ठीक उसी तरह नहीं बदल सकता जैसे कि अपने निर्धारित भविष्य को , जिससे मैं अभी तक अनभिज्ञ हूँ। "


- हे ईश्वर , तू तो सर्वशतक्तिमान है ना ! वृद्ध ने ऊँची आवाज़ में कहा था ।  


" अपने वर्तमान के तंग दायरे में , मैं उतनी ही दिशाविहीनता से  आगे बढ़ता हूँ जितना कि अपने अतीत या फिर भविष्य से ......

यहाँ तक कैसे पहुँचा नहीं मालूम । अपना बचपन व्यर्थ गवां दिया। आख़िर अपनी माध्यमिक कक्षाओं में एक बुरा विद्यार्थी बन कर क्यों रह गया ?

इसके ज़रूर कुछ मनोवैज्ञानिक कारण रहे होंगे।  ( तुम्हारा यह बहाना भी भी नहीं चलेगा कि तुम मूर्ख हो क्योंकि तुम्हारे पास अक़्ल है ,- मेरे पिता मुझसे अक्सर कहा करते थे ) बाद में  १४ या १४-१/२ की उम्र में , बेहद  हास्यप्रद  परिस्थितियों में , लगभग आधे घंटे की लम्बी अवधि तक गोलियों से भरी मशीनगन की ठंडी नली मुझ पर तनी रही  थी।  इन परिस्थितियों को साधारण भाषा में ब्यान करना असंभव है।  इतना ही काफी है कि मैं सशस्त्र पुलिसकर्मियों के बैरकों के तंग गलियारें में खड़ा था और भय से मेरे पसीने छूट रहे थे और किसे मालूम कि उन अस्त व्यस्त विचार- श्रृंखला की   एक कड़ी ने मुझे उस भीड़ से सिर्फ इसलिए जोड़ रखा था कि उनकी तरह मैं भी एक यहूदी हूँ। क्रिस्टल कि तरह साफ़ फूलों की सुगंध वाली गर्मियों की रात थी और हमारे ऊपर पूर्णिमा का चाँद चमक रहा था। हवा में रह रह कर भिनभिनाहट की आवाज़ गूँज रही थी - यक़ीनन इतालियन एयर बेसिस से उठी रॉयल एयर फोर्स के जहाज़ों की टुकड़ी अनजाने लक्ष्यों की तरफ बढ़ रही थी और खतरा यही था कि अगर उन्होंने बैटकुस या उसके आस - पास बम गिराए तो पुलिस हम सबको गोलियों से भून देगी। लेकिन इस सन्दर्भों और कारणों पर विचार करना मुझे तब भी उतना ही ग़ैरज़रूरी  लगा था जितना कि अब ..।  मशीनगन कैमरे स्टैंड से मिलते जुलते एक स्टैंड पर रखी थी।  मंचनुमा चौकी पर कोई मोटी मूँछ वाला सशस्त्र पुलिसकर्मी निशाना साधे खड़ा था ।  मशीनगन की नली एक हास्यप्रद कुप्पीनुमा पुर्जे से जुडी थी जिसे देख का मुझे अपनी दादी की आटे की  चक्की याद आ गयी।  हम इन्तिज़ार कर रहे थे।  भिनभिनाहट की आवाज़ आग गर्जन में बदल गयी थी और उसके बाद फिर भिनभिनाहट , शुरू की ख़ामोशी एक एक गूंगे अंतराल के बाद भिनभिनाहट में तब्दील हो जाती और बाद में बड़े गर्जन में बदल जाती।  बम गिराए या नहीं सवाल यही था।  धीरे धीरे पुलिसकर्मियों पर जुआरियों का सा पागल उन्माद सवार हो रहा था।  उस आकस्मिक ख़ुशी को मैं शब्दों में कैसे ढालूँ जोकि मेरे पहले आश्चर्य  के बाद मेरे अंदर भी छा गयी थी।  मुझे इस छोटे से दांव  को समझना चाहिए  था जिससे से एक हद तक में भी खेल का मज़ा ले पात।  अपने दुनिया के इस छोटे से रहस्य को मैं समझ गया कि मुझे कही भी , कभी भी गोलियों से भूना जा सकता है।  हो सकता है कि ये ...।  "

" ईश्वर की ऐसी की तैसी " वृद्ध पढ़ते पढ़ते रुक गया था और इसी बीच  उसने अल्मारी की तरफ हाथ बढ़ाया था। इस अजीब परिवर्तन का कारण एक आकस्मिक घटना थी जिसे आकस्मिक भी नहीं कहा जा सकता ( क्योकि यह घटना रोज़ एक नियम की तरह घटती थी )और जिस घटना की पुनरावृति ने हमारी आँखों के सामने वृद्ध पर गहरा असर डाला था , वास्तव में सटीक स्पष्टीकरण को हम रोक नहीं सकते।  हमें स्वीकार करना चाहिए कि यह कर्त्तव्य अपने आप में हमें शर्मसार करने वाला है। 


हम कुल मिला कर यही कह सकते है कि ईश्वर को दी उसकी गाली के लिए , उसके पेट में उठती मरोड़ों के लिए, उसकी उस थोड़ी से उल्टी के लिए जो एक  लिफ़्ट की  तरह उसकी छाती और गले से ऊपर उसकी गर्दन तक आयी थी और इन सब तथ्यों के लिए यह स्पष्टीकरण काफी नहीं है कि उसके ऊपर वाली मंज़िल में किसी ने रेडियो खोल दिया था। 



अनुवादक : इन्दुकांत आंगिरस 


लघुकथा - अर्ज़ी

 

अर्ज़ी


यजमान ने पंडित जी के घर का दरवाज़ा  खटखटाया। यजमान को सामने खड़ा देख   पंडित जी ने मुस्कुराते हुए   उसका स्वागत किया और उसे अपने कार्यालय में ले गए।  कार्यालय के दीवारों पर हिन्दू देवी - देवताओं की रंगीन तस्वीरें मद्धम रौशनी में जगमगा रही थी। अगरबत्ती की ख़ुश्बू वातावरण में तैर रही थी। पंडित जी अपनी गद्दी पर विराजमान हो मंद मंद मुस्कुरा रहे थे मानों उन्हें यजमान के सब दुखों की जानकारी है और वो जानते है कि यजमान से कितने पैसे आसानी से निकलवाए जा सकते हैं।  यजमान दोनों हाथ जोड़े पंडित जी को अपलक देख रहा था। आख़िरकार पंडित  जी ने मौन तोडा - 

" घबरा मत बच्चे !  सब ठीक हो जायेगा , बस अर्ज़ी लगानी पड़ेगी ..."


" अर्ज़ी कहाँ लगानी पड़ेगी पंडित जी " - यजमान ने उत्सुकता से पूछा। 


पंडित जी ने दीवार पर लगी संत आशाराम की तस्वीर की ओर इशारा कर दिया। 


संत आशाराम , यजमान के लिए नए थे सो जल्दी से पंडित जी से पूछा - "इनका दफ़्तर कहाँ है पंडित जी  ?"


पंडित जी ने तत्काल संत आशाराम के मंदिर  की लोकेशन यजमान के व्ट्सअप्प पर भेज दी। 


यजमान ने धीरे से एक भारी लिफ़ाफ़ा पंडित जी की ओर सरकाया और   ख़ुशी ख़ुशी अपनी अर्ज़ी बनाने लगा। 



लेखक - इन्दुकांत आंगिरस 




Friday, September 2, 2022

कलश कारवाँ फाउंडेशन , बैंगलोर का तराना , हुआ एक साल पुराना

 


                                            कलश कारवाँ फाउंडेशन , बैंगलोर - 03-9-2021


पिछले दिनों  बैंगलोर की  साहित्यिक " शब्द " संस्था के बारे में भूपेंद्र कुमार द्वारा  लिखे गए एक संस्मरण  में  सरोजा व्यास  का एक जुमला पढ़ा " लोग आते हैं जाते हैं लेकिन संथाएँ चलती रहती हैं "।  

हर संस्था का एक  इतिहास होता हैं।  कलश कारवाँ फाउंडेशन , बैंगलोर का इतिहास भी अत्यंत रोचक और प्रेरणापूर्ण है।  बेगूसराय से बैंगलोर पधारे श्री राजेंद्र कुमार मिश्रा उर्फ़ राही राज , बैंगलोर में एक कवि के रूप में अपनी पहचान स्थापित करने में व्यस्त थे।  उन्होंने " कारवाँ " नाम से एक संस्था खोली जिसमे मुझे भी शामिल किया और उसका पहला कार्यक्रम प्रसिद्ध शाइर जनाब गुफ़रान अमजद कीअध्यक्षता में मेरे बैंगलोर के निवास स्थान पर आयोजित हुआ जिसमे राही राज ने अत्यंत भावपूर्ण विचार रखें।  उनकी साहित्यिक भावना ने सभी को अभिभूत कर दिया। 

" कारवाँ " का दूसरा कार्यक्रम कभी नहीं हुआ और इसी बीच राही राज ने गरिमा पाठक के साथ मिल कर एक नई संस्था " राही के कारवाँ "( जिसका नाम अब " राही का कारवाँ '" है ) शुरू कर दी और यह संस्था अब भी ज़ारी है। 

राही राज के कारवाँ में लोग  जुड़ते गए और उन्हें लगा कि संस्था को रजिस्टर कराना चाहिए।  3 सितम्बर ' 2021 को " कलश कारवाँ फाउंडेशन " , बैंगलोर का रजिस्ट्रेशन बैंगलोर में एक ट्रस्ट के रूप में हो गया जिसके सेटलर - राही राज हैं और इसके फाउंडर ट्रस्टीज हैं-ईश्वर करुण , संतोष संप्रीति , गरिमा पाठक , प्रीति राही   और इन्दुकांत आंगिरसभोपाल की अलका राज़ अग्रवाल को भी फाउंडर ट्रस्टी बनना था लेकिन क्योंकि उस दिन वो  बैंगलोर में उपस्थित नहीं थी तो ऐसा नहीं हो सका। बाद में सर्वसम्मिति से उन्हें ट्रस्टी बनाने का निर्णय लिया गया।   


कलश कारवाँ फाउंडेशन , बैंगलोर के रजिस्ट्रेशन की घोषणा 5 सितम्बर ' 2021 को एक भव्य कार्यक्रम में की गई जिसमे बैंगलोर और दूसरे शहरों के प्रसिद्ध साहित्यकारों ने शिरकत फ़रमाई जिनमे सर्वश्री गरिमा  पाठक, डॉ उषा रानी राव , डॉ सुभाष वसिष्ठ , डॉ आदित्य शुक्ल , डॉ प्रेम तन्मय , संतोष संप्रीति , अलका राज़ अग्रवाल , प्रीति राही , ईश्वर करुण , ज्ञानचंद मर्मज्ञ , पुष्पलता ,सुनीता सैनी ,कमल राजपूत कमल, राही राज और इन्दुकांत आंगिरस के नाम उल्लेखनीय हैं। 


हनोज़ सेलुलर जेल दूरे


दुर्भाग्य से कुछ महीनो के उपरान्त कलश कारवाँ फाउंडेशन , बैंगलोर की संस्थापक ट्रस्टी गरिमा पाठक का 07-02-2022 को निधन हो गय। उनका सपना था कि कलश कारवाँ फाउंडेशन , बैंगलोर अपना  एक कार्यक्रम सेलुलर जेल , अंडमान निकोबार के सामने आयोजित करें और हमारी आज़ादी के लिए शहीद हुए क्रांतिकारियों को श्रद्धांजलि दी जाये। पिछले एक साल में संस्था ने कई साहित्यिक कार्यक्रम  आयोजित किये , दिल्ली तक अपना परचम फहराया लेकिन सेलुलर जेल , अंडमान निकोबार के सामने अभी तक कुछ कार्यक्रम आयोजित नहीं कर पाई है।  आशा है शायद इस वर्ष यह संभव हो सके , तब तक तो यह कहा जा सकता है कि -

  हनोज़ सेलुलर जेल दूरे। 


दिल्ली की एक पुरानी  उर्दू साहित्यिक संस्था " हल्क़ा ए  तिश्नगाने अदब "  के सेक्रेटरी और मारूफ़ शाइर जनाब सीमाब सुल्तानपुरी का एक जुमला याद आ गया - "जो संस्था रजिस्टर हो जाती हैं वो रजिस्टर में ही रह जाती हैं । "  यह ख़ुशी की बात है कि कलश कारवाँ फाउंडेशन , बैंगलोर नियमित रूप से साहित्यिक कार्यक्रम आयोजित कर रही है  हालांकि अधिकांश कार्यक्रम पुस्तक विमोचन ,काव्य गोष्ठियों और सम्मान समारोह तक ही सीमित रहे हैं। आशा है कलश कारवाँ फाउंडेशन , बैंगलोर रजिस्टर तक सीमित नहीं रहेगी और व्यक्तिगत प्रचार -प्रसार से ऊपर उठ कर साहित्य और  समाज के लिए कुछ ठोस कार्य करेगी। 


अभी तो " कलश कारवाँ फाउंडेशन , बैंगलोर " का जन्म ही हुआ है और तकनीकी कारणों से बैंक खाता न खुलने के कारण घर की गुल्लक पर ही निर्भर  है।  


बक़ौल अमीर मीनाई -


सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता 

निकलता आ रहा है  आफ़्ताब आहिस्ता  आहिस्ता 



प्रस्तुति -  इन्दुकांत आंगिरस