तुम इब्तिदा में ही घबरा गए हो ऐ ' नाशाद '
अभी तो और ज़माना ख़राब आएगा
घर के दरवाज़े पर नाम पट्टिका टँगी हुई थी जिस पर काली क़लम से घर के मालिक का नाम साफ़ साफ़ उजागर हो रहा था। अपनी टूटी -फूटी उर्दू से मैंने उस नाम को धीरे धीरे पढ़ा - " नाशाद देहलवी "। नाशाद साहिब का वास्तविक नाम फ़कीर चन्द है। उनसे मेरी पहली मुलाक़ात किसी मुशायरे में हुई थी ओर उन्होंने आहिस्ता से अपना विजिटिंग कार्ड मेरे हाथ में सरका दिया था। उस रोज़ , मैं एक मुशायरा के सिलसले में ही उनके घर उनसे मिलने गया था। उन्होंने बहुत गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया था।
उसके बाद अक्सर मुशायरों या अदबी नशिस्तों में उनसे मुलाक़ाते होती रहती थी। लगभग पाँच फुट २ इंच का क़द , गेहुआं रंग दुबले -पतले लेकिन फुर्तीले ओर पुरज़ोर आवाज़। AIIMS में कार्य करते थे लेकिन शाइरी का बेइंतिहा शौक़ था। उस समय उनके उस्ताद स्वर्गीय मुन्नवर सरहदी थे , वास्तव में मुन्नवर सरहदी साहिब से उन्होंने ही मुझे मिलवाया था। कभी कभी हम लोग एक साथ मुन्नवर साहिब के घऱ जाते।
जब तक दिल्ली में रहा नाशाद साहिब से जब - तब मुलाक़ाते होती रहती थी , लेकिन बैंगलोर आने के बाद यह सिलसिला टूट गया। नाशाद साहिब अक्सर मुझे फ़ोन करते रहते थे ओर अपनी ताज़ा ग़ज़लें मुझे फ़ोन पर ही सुना डालते थे। उनकी ग़ज़लें ओर शाइरी ही उनकी पूँजी थी ओर अपनी इस पूँजी को वो अल्मारी के लॉकर में संभाल कर रखते थे। शुरू में मुझे कुछ अटपटा लगा लेकिन उनकी ग़ज़लों की डायरिया उनके लिए किसी ख़ज़ाने से कम नहीं थी।
घर में अकेले कमाने वाले और बड़ा परिवार। मुफ़लिसी में ज़िंदगी गुज़रती थी पर कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया। नाशाद साहिब उर्दू ज़बान और उर्दू शाइरी से बेइंतिहा मुहब्बत करते थे। मुशायरों में ग़ज़ल पढ़ने का उनका अलग अंदाज़ था। अपना नाम पुकारने पर बिजली की तरह माइक पर जाते , अपनी पुरज़ोर आवाज़ में ग़ज़ल पढ़ते , माशा - अल्लाह उनका तरुन्नम भी मिठास भरा था। नाशाद साहिब तमाम उम्र ज़िंदगी से लड़ते रहे। उनका यह शे'र देखें -
मंज़िल का इरादा है तो घबरा के न छोड़ो
आती हैं बहुत दिक़्कतें आगाज़ -ए-सफ़र में
उनकी बेटियाँ भी हैं और उनकी शादी की फ़िक्र उन्हें सताती रहती थी। मुफ़लिस बाप की बेटियों की शादी आसानी से नहीं होती। दान -दहेज की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। जैसे जैसे समाज तरक्की करता जा रहा है वैसे वैसे समाजिक मूल्यों का विघटन होता जा रहा हैं। लोगों में दौलत की भूख बढ़ती जा रही है। शायद इसीलिए उन्होंने यह शे'र कहा होगा -
क्या दिन थे के भूले से पलट कर नहीं आते
गुड़िया को ब्याह लाते थे हम रेत के घर में
मुन्नवर सरहदी के गुजरने के बाद उन्होंने जनाब सैफ़ सहरी को अपना उस्ताद बना लिया था , जिनके प्रति उनकी अपार श्रद्धा थी। उर्दू ज़बान के प्रति उनकी मुहब्बत को उर्दू अदब ने निराश नहीं किया। उन्होंने उर्दू अकेडमी , दिल्ली के कई मुशायरों में अपना क़लाम पढ़ा और उनके इंतकाल की ख़बर भी उर्दू के एक अखबार में छपी। अफ़सोस कि नाशाद साहिब का उनके जीवन काल में कोई किताब प्रकाशित नहीं हो पाई लेकिन आशा है शीघ्र ही उनकी ग़ज़लों कि किताब प्रकाशित होगी और अदबी दुनिया में उसका स्वागत होगा।
मौत टल जाएगी ' नाशाद ' चले भी आओ
दिल को अपनी - सी कोई आस बंधा जा, आजा
हो सकता है उनके दिल को आस बँधाने वाले उनके पास आये भी हो लेकिन 8 अप्रैल ' 2021 को उनकी मौत टल नहीं पायी । नाशाद साहिब आज हमारे बीच नहीं लेकिन लेकिन उनकी शाइरी हमारे बीच हमेशा ज़िंदा रहेगी।
वास्तविक नाम - फ़क़ीर चन्द
उपनाम - " नाशाद " देहलवी
जन्म - 14 -01 -1954 , दिल्ली
निधन - 08-04-2021 , दिल्ली
सच्ची श्रद्धांजलि।
ReplyDeleteनाशाद देहलवी साहिव बहुत ही गर्म जोशी से मिलने वाले इन्सान थे
ReplyDeleteअक्सर काव्यगोष्ठीयों में उनसे मुलाकात होती रहती थी एक बार वे मुझे अपने तत्कालीन निवास स्थान आर.के.पुरम सै. 9 फ्लेट पर लेकर गये थे । काफी देर तक गज़ल और कविताओ से सम्बंधित चर्चा हुई थी हमारी ।
वे गज़ल के शिल्पी और तरूननम के बादशाह थे।
एसी पवित्र आत्मा को मेरी श्रृद्धांजली।
शिवन लाल जलाली
27-4-2021