मैं गीत प्यार के गाता हूँ , इसलिए जवानी मेरी है
मैं ग़म में भी मुस्काता हूँ , इसलिए रवानी मेरी है
प्यार के गीत गाने वाले और ग़म में भी मुस्काने वाले कीर्तिशेष डॉ रमेश कुमार आंगिरस यानी मेरे पिताश्री दुर्भाग्य से अब हमारे बीच नहीं। उनसे जुडी अनगिनत यादें हैं जिन सभी का ज़िक्र यहाँ संभव नहीं । उपरोक्त पंक्तियाँ बरसों पहले उनकी एक गीतों की डायरी में पढ़ी थी , अफ़सोस उस डायरी को मैं सहज कर नहीं रख सका। अपनी युवा अवस्था में पिताश्री " मज़दूर " उपनाम से कविताएँ लिखते थे। प्रसिद्ध कवि श्री बाल स्वरुप राही के समकालीन थे और उस ज़माने में उनके कवि मित्र भी। बाद में उन्होंने कविताएँ लिखनी बंद कर दी लेकिन सुननी नहीं। अक्सर कवि -सम्मेलनों में जा कर कविताएँ सुनना ,कई बार तो मेरी माँ और मुझे भी साथ ले जाते। मुझे याद तो नहीं पर ऐसा मुझे बताया गया था कि मेरी दूसरी सालगिरह पर पिताश्री ने घर पर ही एक कवि सम्मेलन का आयोजन करवाया था जिसमे सर्वश्री बाल स्वरूप राही , देवराज दिनेश , पंडित रमानाथ अवस्थी के साथ अन्य समकालीन कवियों ने कविता पाठ किया था।
हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार के लिए सदा तत्पर रहते थे । हिन्दी भाषा से उनका एक और सम्बन्ध भी है , उनका जन्मदिन भी १४ सितम्बर ,हिन्दी दिवस के दिन ही पड़ता है । हिन्दी भाषा के अलावा साहित्य के प्रति भी उनकी अभिरुचि थी विशेष रूप से कविता के प्रति। उन्हें जब भी अवसर मिलता , विभिन्न कार्यालयों में कवि गोष्ठी का आयोजन करवाते और मेरे द्वारा आयोजित कवि गोष्ठियों में भी श्रोता के रूप में उपस्थित हो कविता का आनंद उठाते। मुझे कविता लिखने की प्रेरणा उनके गीतों को पढ़ने से ही मिली थी। परिचय साहित्य परिषद् की अध्यक्ष स्वर्गीया उर्मिल सत्यभूषण के विशेष आग्रह करने पर आप परिचय साहित्य परिषद् के संरक्षक मंडल में शामिल हो गए थे।
२0 वर्ष की अल्पआयु में ही सरकारी नौकरी मिल गयी थी। LDC , एक साधारण क्लर्क के पद पर ज्वाइन किया लेकिन अपनी मेहनत और लगन से उच्च शिक्षा ग्रहण करी और वर्ष १९९३ में शिक्षा मंत्रालय से निदेशक ( राज भाषा ) के पद से सेवा निवृत हुए। नौकरी के दौरान उन्हें एक बार इंग्लैंड में भारतीय दूतावास में हिन्दी अधिकारी के रूप में ज्वाइन करने का अवसर मिला लेकिन किन्ही कारणों से उन्होंने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। नौकरी के दौरान ही MA हिन्दी और बाद में पीएचडी की उपाधि प्राप्त करी। कुरुक्षेत्र विश्विद्यालय में कार्यरत प्रोफेसर डॉ पदम् सिंह शर्मा " कमलेश "उनके पीएचडी के गाइड थे और पीएचडी का विषय था - " निराला काव्य का मनोवैज्ञानिक अध्ययन "। महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के साहित्य पर किया गया यह अद्भुत शोध ग्रन्थ है जिसको पिताश्री ने अत्यंत मनोयोग और मेहनत से पूर्ण किया। । अगर यह शोध ग्रन्थ उसी वक़्त प्रकाशित हुआ होता तो निश्चय ही हिन्दी साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण कृति के रूप में सम्मानित किया जाता। यह शोध ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है। मैंने जब कभी इसके प्रकाशन का ज़िक्र उनसे किया उन्होंने यह कह कर टाल दिया कि इसको अब कौन पढ़ेगा। आशा है अब यह शोध ग्रन्थ शीघ्र प्रकाशित कर पाउँगा।
निदेशक , राज भाषा और वसंत विहार , दिल्ली में अपना मकान। इतनी पद- प्रतिष्ठा के बावजूद पिताश्री को घमंड छू भर नहीं गया था , विशेष रूप से कोई उनके सामने उनकी प्रशंसा करे तो उन्हें संकोच अनुभव होता था। जिन दिनों पिताश्री निदेशक , राज भाषा के रूप में कार्यरत थे ,उस समय केंद्रीय हिन्दी निदेशालय के निदेशक, थे डॉ गंगा प्रसाद विमल थे। डॉ विमल से मेरी मुलाक़ात अक्सर साहित्यिक कार्यक्रमों में होती रहती थी। एक बार डॉ गंगा प्रसाद विमल ने भी मुझ से उनके हिन्दी प्रेम और सरल स्वभाव का ज़िक्र किया।सुनकर गौरान्वित हुआ था। डॉ श्याम सिंह शशि तो हमारे पडोसी ही है और अक्सर मॉर्निंग वाक पर उनकी मुलाक़ात पिताश्री से होती रहती थी। मैं जब भी डॉ श्याम सिंह शशि के घर उनसे मिलने जाता ,वे खुले मन से पिताश्री की तारीफ़ करते। उनके दो और अभिन्न मित्र स्वर्गीय डॉ राज कुमार सैनी एवं स्वर्गीय डॉ शेरजंग गर्ग से भी अक्सर साहित्यिक कार्यक्रमों में मुलाक़ाते होती रहती और दोनों मुझसे हमेशा पिताश्री की कुशल क्षेम पूछते रहते ।
कीर्तिशेष डॉ रमेश कुमार आंगिरस बहुत ही सहज , सरल ,विनम्र , हँसमुख और मिलनसार व्यक्ति थे। वास्तव में आप हर दिल अज़ीज़ इंसान थे , जिस किसी से भी पाँच मिनट बात कर लेते , वे उनके मुरीद हो जाते। सदैव दूसरो की मदद को तत्पर रहते , कोई आधी रात को भी उनसे मदद की गुहार करता तो उसके साथ चल पड़ते ।एक कवि मन रखने के कारण पिताश्री अत्यंत भावुक प्रकृति के व्यक्ति थे। स्वाभिमान तो उनमे कूट कूट के भरा था , जीवन में कभी भी नीचे गिर कर किसी चीज़ को नहीं उठाया। बनावट और आडंबरों से कोसो दूर यह कर्मयोगी रात- दिन मेहनत करते थे। मैंने अनेक बार उन्हें रात रात भर काम करते देखा है। जब तक हाथ में आया काम पूर्ण नहीं कर लेते , उन्हें चैन नहीं पड़ता था। सेवा निवृत होने के बाद उनके पास कई सरकारी और ग़ैर सरकारी कार्यालयों से हिन्दी - अँगरेज़ी अनुवाद का निरंतर काम आता था।हिन्दी -अँगरेज़ी दोनों भाषाओँ पर उनका समान अधिकार था। अनेक परीक्षाओं के पर्चें भी उनके पास जाँच के लिए आते थे। उन्होंने और भी कई विषयों पर लेखन कार्य किया लेकिन किन्ही कारणों से यह लेखन कार्य उनके नाम से प्रकाशित नहीं हो पाया ।
भाषाविद स्वर्गीय पंडित ओमदत्त शास्त्री के पुत्र कीर्तिशेष डॉ रमेश कुमार आंगिरस सौभाग्य से मेरे पिता है और दुर्भाग्य यह है कि आज हमारे बीच नहीं है। एक पुत्र होने के नाते मेरी अनगिनत यादे उनसे जुडी हैं। उनके रहते कभी किसी बात की फ़िक्र नहीं करी। मेरे अपने जीवन की अनेक कठिनाइयों को उन्होंने दूर किया और मुझे सदैव एक मित्र की तरह समझा। उनका आशीर्वाद सदा मेरे साथ रहा।
ईश्वर से यही प्रार्थना है कि उनकी आत्मा को शान्ति मिले और मुझे ,उनके अधूरे कार्य पूरा करने का सम्बल।
हमें आपके पिता श्री का परिचय पाकर गर्व का अनुभव हुआ। ऐसे महान व्यक्तित्व को शत शत नमन।
ReplyDeleteहमने भी आपके यहां बंगलोर से दिल्ली मिलने पहुंचा तो सहज विश्वास ही नहीं हुआ इतने बड़े महान व्यक्तित्व के धनी महापुरूष से मिला हूं । उनकी सादगी ने हमें पहली ही मुलाकात में मंत्रमुग्ध कर दिया । काश ! एक दो बार और मिल पाता तो कुछ सीख पाता ।
ReplyDeleteराही राज़
हिंदी की सेवा में संपूर्ण जीवन लगा देने वाले कर्मयोगी को आदरांजलि....💐
ReplyDeleteमहान व्यक्तित्व को शत शत नमन विनम्र श्रद्धांजलि
ReplyDeleteमुझे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ कि मुझे अनेक बार उनका स्नेहाशीष प्राप्त हुआ।
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