Thursday, April 29, 2021

कीर्तिशेष डॉ कुँवर बेचैन - गीतों के राजकुमार

 

ये दुनिया सूखी मिट्टी है , तू प्यार के छींटे देता चल  


प्यार के छींटे देने वाले लोकप्रिय , प्रसिद्ध गीतकार , ग़ज़लकार कीर्तिशेष डॉ कुँवर बेचैन का आज स्वर्गवास हो गया। यह दुनिया उन्हें  गीतों के   राजकुमार  नाम से भी  जानती  है । उन्होंने देश-विदेश के अनेक कवि-सम्मेलनों में अपने गीतो से श्रोताओं को मन्त्र - मुग्ध किया है। उनकी लोकप्रियता का यह आलम था कि कवि -सम्मेलनों में अक्सर लोग  उनको सुनने के लिए बैठे रहते थे।  मैंने स्वयं उनको ग़ाज़ियाबाद और दिल्ली के  कई कवि -सम्मेलनों में सुना है। 

मैंने अपनी ज़िंदगी के चन्द साल ग़ाज़ियाबाद में गुज़ारे थे और वहाँ की बहुत सी यादे आज भी ताज़ा है। उन्ही यादों में से एक याद है डॉ कुँवर बेचैन से मेरी मुलाक़ात। उनसे मेरी पहली मुलाक़ात लगभग ४३  वर्ष पूर्व ग़ाज़ियाबाद के चौधरी सिनेमा के मेजनीन   फ्लोर पर " इंगित " संस्था द्वारा आयोजित एक काव्य संध्या में हुई थी।  यह काव्य संध्या लगभग ३.३० से  शाम ६.३० तक चली थी।  मेरे साथ मेरे कवि मित्र स्वर्गीय राजगोपाल सिंह भी थे। 

                  उस दिन उस काव्य संध्या में राजगोपाल सिंह ने अपने मीठे सुर में एक लोक गीत सुनाया था और डॉ कुँवर बेचैन ने एक गीत। काव्य संध्या के बाद हम तीनो लगभग बीस मिनट तक टहलते रहे थे। राजगोपाल सिंह  और डॉ कुँवर बेचैन आपस में गुफ़्तगू कर रहे थे और मैं सिर्फ़ एक श्रोता बन उनकी बाते सुन रहा था।  मुझे याद है उस दिन डॉ कुँवर बेचैन ने राजगोपाल सिंह से कहा था - राजगोपाल भाई ,तुमने बहुत सुन्दर लोक गीत गाया , अरे भाई , हमारे गीतो की धुन भी तुम्ही बना दिया करो।  राजगोपाल सिंह ने हँसते हुए जवाब दिया था - अरे , डॉ साहिब आपका अपना तरन्नुम ही बेहतरीन है। और वाकई डॉ कुँवर बेचैन का अपना मौलिक तरन्नुम बहुत ही दिलकश और हर दिल अज़ीज़ था।   

डॉ कुँवर बेचैन  अत्यंत सहज , सरल और विनम्र स्वभाव के थे और उनकी मुस्कुराहट तो जादू भरी थी।   कभी कभी कवि -सम्मेलनों में उनसे  मुलाक़ात हो जाती थी।  स्नेह से मेरे कंधे पर हाथ रखते और मुझसे कुशल क्षेम पूछते। इतने  बरस गुज़र गए लेकिन उस शाम का मंज़र आज भी आँखों के सामने वैसा ही ताज़ा है। 


उसी वक़्त के लिखे हुए एक गीत ने ही डॉ कुँवर बेचैन को अत्यधिक लोकप्रिय बना दिया था। हर कविता प्रेमी की  ज़बान पर वो गीत था , उसी गीत का मुखड़ा देखे -


जितनी दूर नयन से सपना 

जितनी दूर अधर से हँसना 

बिछुए जितनी दूर कुँवारे  पाँव से 

उतनी  दूर  पिया तू  मेरे गाँव से  


उस वक़्त तक न तो राजगोपाल सिंह ग़ज़ल कहते थे और न डॉ कुँवर बेचैन । बाद में दोनों ने ही ग़ज़लें कहनी शरू कर दी थी । डॉ कुँवर बेचैन की ग़ज़ल का एक शे'र देखें-


दिल पे मुश्किल है बहुत दिल की कहानी लिखना 

जैसे   बहते   हुए  पानी   पे   हो   पानी    लिखना 


हाँ , यक़ीनन बहुत मुश्किल है  डॉ कुँवर बेचैन  जैसे महान कवि की कहानी को चन्द अल्फ़ाज़ में समेट देना।  उनके शिष्य डॉ कुमार विश्वास के एक सन्देश के ज़रीए मालूम पड़ा कि  उनकी अंतिम इच्छा  थी कि उनकी शवयात्रा पर उनकी निम्नलिखित पंक्तियाँ लिख दी जाए। कोरोने के चलते डॉ कुँवर बेचैन  की शवयात्रा तो नहीं निकल पाई लेकिन उनके कालजयी   गीत की वो पंक्तियाँ कुछ यूँ हैं -


सूखी   मिट्टी से    कोई भी   मूरत न   कभी बन पाएगी 

जब  हवा  चलेगी  ये  मिट्टी   ख़ुद  अपनी  धूल उड़ाएगी 

इसलिए सजल बादल बनकर  बौछार के छींटें देता चल 

ये  दुनिया   सूखी   मिट्टी है ,   तू प्यार के  छींटे देता चल  



वास्तविक नाम - कुँवर बहादुर सक्सेना 

उपनाम -    डॉ कुँवर बेचैन

जन्म - 01-07-1942 ,  उमरी , मुरादाबाद 

निधन -  29-04-2021  , ग़ाज़ियाबाद 


  NOTE : 

उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व  के बारे में अधिक जानकारी इंटरनेट पर पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है। 

Wednesday, April 28, 2021

कीर्तिशेष " नाशाद " देहलवी और उनका ज़माना

                                                                " नाशाद " देहलवी



तुम इब्तिदा में ही घबरा गए हो ऐ ' नाशाद '

अभी   तो   और   ज़माना    ख़राब  आएगा  


घर के दरवाज़े पर नाम पट्टिका टँगी हुई थी जिस पर काली क़लम से घर के मालिक का नाम साफ़ साफ़ उजागर हो रहा था। अपनी टूटी -फूटी उर्दू से मैंने उस नाम को धीरे  धीरे पढ़ा - " नाशाद देहलवी "।  नाशाद साहिब का वास्तविक नाम फ़कीर चन्द  है। उनसे मेरी पहली मुलाक़ात किसी  मुशायरे में हुई थी ओर उन्होंने आहिस्ता से अपना विजिटिंग कार्ड मेरे हाथ में सरका दिया था। उस रोज़ , मैं एक मुशायरा के सिलसले में ही  उनके घर   उनसे मिलने गया था।  उन्होंने बहुत गर्मजोशी से मेरा स्वागत किया  था। 


उसके बाद अक्सर मुशायरों या अदबी नशिस्तों में उनसे मुलाक़ाते होती रहती थी।  लगभग पाँच फुट २ इंच का क़द , गेहुआं रंग दुबले -पतले लेकिन फुर्तीले ओर पुरज़ोर आवाज़। AIIMS में कार्य करते थे लेकिन शाइरी का बेइंतिहा शौक़ था।  उस समय उनके उस्ताद स्वर्गीय मुन्नवर सरहदी थे , वास्तव में मुन्नवर सरहदी साहिब से उन्होंने ही मुझे मिलवाया था। कभी कभी हम लोग एक साथ मुन्नवर साहिब के घऱ जाते। 

 जब तक दिल्ली में रहा नाशाद साहिब से जब - तब मुलाक़ाते होती रहती थी , लेकिन बैंगलोर  आने के बाद यह सिलसिला टूट गया।  नाशाद  साहिब अक्सर मुझे फ़ोन  करते रहते थे ओर अपनी ताज़ा ग़ज़लें मुझे फ़ोन  पर ही सुना डालते थे। उनकी ग़ज़लें ओर शाइरी ही उनकी पूँजी थी ओर अपनी इस पूँजी को वो अल्मारी के लॉकर में संभाल कर रखते थे। शुरू में मुझे कुछ अटपटा लगा लेकिन उनकी ग़ज़लों की डायरिया उनके लिए किसी ख़ज़ाने से कम नहीं थी। 


घर में अकेले कमाने वाले और बड़ा परिवार। मुफ़लिसी में ज़िंदगी गुज़रती थी पर कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया। नाशाद साहिब उर्दू ज़बान और उर्दू शाइरी से बेइंतिहा मुहब्बत करते थे।  मुशायरों में ग़ज़ल पढ़ने का उनका अलग अंदाज़ था। अपना नाम पुकारने पर बिजली की तरह माइक पर जाते , अपनी पुरज़ोर आवाज़ में ग़ज़ल  पढ़ते , माशा - अल्लाह उनका तरुन्नम भी मिठास भरा था। नाशाद साहिब तमाम उम्र ज़िंदगी से लड़ते रहे। उनका यह शे'र देखें -


मंज़िल का  इरादा है तो  घबरा के न छोड़ो 

आती हैं बहुत दिक़्कतें आगाज़ -ए-सफ़र में    


उनकी बेटियाँ भी हैं  और उनकी शादी की फ़िक्र उन्हें सताती रहती थी। मुफ़लिस बाप की बेटियों की शादी आसानी से नहीं होती। दान -दहेज की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। जैसे जैसे समाज तरक्की करता जा रहा है वैसे वैसे समाजिक मूल्यों का विघटन होता जा रहा हैं। लोगों में दौलत की भूख बढ़ती जा रही है।  शायद इसीलिए उन्होंने यह शे'र कहा होगा -


क्या दिन थे के भूले से पलट  कर नहीं आते 

गुड़िया को ब्याह लाते थे  हम रेत के घर में 



मुन्नवर सरहदी के गुजरने के बाद उन्होंने जनाब सैफ़ सहरी को अपना उस्ताद बना लिया था , जिनके प्रति उनकी अपार श्रद्धा थी। उर्दू ज़बान के प्रति उनकी मुहब्बत को उर्दू अदब ने निराश नहीं किया। उन्होंने उर्दू अकेडमी , दिल्ली के कई मुशायरों में अपना क़लाम पढ़ा और उनके इंतकाल की ख़बर भी उर्दू के एक अखबार में छपी। अफ़सोस कि नाशाद साहिब  का उनके जीवन काल में कोई किताब प्रकाशित नहीं हो पाई लेकिन आशा है शीघ्र  ही उनकी ग़ज़लों कि किताब प्रकाशित होगी और अदबी दुनिया में उसका स्वागत होगा। 


मौत   टल   जाएगी ' नाशाद '   चले   भी आओ 

दिल को अपनी - सी कोई आस बंधा जा, आजा 


हो सकता है उनके दिल को आस बँधाने वाले उनके पास आये भी हो लेकिन 8 अप्रैल ' 2021 को उनकी  मौत टल नहीं पायी ।  नाशाद साहिब आज हमारे बीच नहीं लेकिन  लेकिन उनकी शाइरी हमारे बीच हमेशा ज़िंदा रहेगी।


वास्तविक नाम - फ़क़ीर चन्द

उपनाम - " नाशाद " देहलवी

जन्म -  14 -01 -1954  , दिल्ली 

निधन -  08-04-2021  , दिल्ली 



Tuesday, April 27, 2021

हंगेरियन गद्य Soror Annuncia का आंशिक हिन्दी अनुवाद


 Soror Annuncia - सिस्टर अनुनत्सया  


सिस्टर अनुनतस्या  मुझे देख रही थी।  मालूम नहीं , मैंने इससे पहले  सिर्फ़ पुरुषों की आँखों में देखी थी ऐसी उदासीनता , एक बार जब एक पुराना सपना टूट गया था और कोई पाँच मिनट के लिए यह विश्वास कर सकता था कि कुछ बहुत क़ीमती रीत जाता है ग़र कोई औरत किसी पुरुष की ज़िंदगी से निकल जाती है। 


लेकिन मेरे दूर जाने से उस बाल हृदय ,अधेड़ उम्र की सिस्टर में क्या रीत रहा है ? मैं तो उस संगीत को भी नहीं समझ पाती जिसमे ढलकर  वह अपना विरोध दर्शाती है। क्या मैं  उसके नारी सुलभ सपनों का पुल थी  जो उसके डरने के बावजूद उसे उस वास्तविक उत्तेजित दुनिया से जोड़ने में सक्षम था , या फिर उसने मुझे संसार के उस अद्भुत  मानव द्वीप से जोड़ा था जोकि सदियों से यही पर मौजूद था और अब वह समझती है कि मैं अतीत से भविष्य की ओर जा रही हूँ।  अथवा यह एक रुग्ण  संवेदनशीलता है , एक दिमाग़ी ख़लल  ,  मैं सुलझे शब्दों में समझना चाहती थी। बहुत कुछ पढ़ा था लेकिन फिर भी सब कुछ नहीं। एक पल के लिए वो सर्द  शाम मेरे ज़ेहन में कौंध गयी जब मैं  पियानो के पास बैठी थी ओर  मेरा हाथ ज़ख़्मी हो गया  था। 


जब ' अलविदा ' शब्द गूँजा तो हमेशा की तरह सिस्टर ने बढ़ कर मेरा हाथ थाम लिया। एक नारी सुलभ आकर्षक अदा से वह मुझसे लिपट गयी ओर उसने अपने अधर  मेरे अधरों पर रख दिए। तब से आज तक किसी ने मुझे उस तरह नहीं चूमा ,  सुलगते अधर .. यक़ीनन मेरी आत्मा भी भीग गयी थी । 

लेकिन  किसलिए    ?


बकवास.. बकवास.. बोलते हुए  मैं सीढ़ियाँ  उतर रही थी। मुझे किस बात के लिए शर्म आ रही थी , ख़ुद पे झुंझला रही थी  या फिर मैं समझना नहीं चाहती थी। क्या उस वाइलेन से परे भी कुछ ऐसे  रंग थे जिसके लिए कोई उपयुक्त  शब्द अबसे हज़ारों साल  बाद कोई हमारा पोता -पड़पोता  ही ढूँड   पायेगा ?



कवियत्री - Kaffka Margit 

जन्म -   10th June ' 1880 , Nagykároly

निधन - 1s December ' 1918 , Budapest 


अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 


NOTE : इसी गद्य का एक अंश 11 मार्च को भी पोस्ट किया गया था। यह गद्य कवयित्री ने 1906 में लिखा था। 


Monday, April 26, 2021

हंगेरियन कवि Farnbauer Gábor की कविताओं का हिन्दी अनुवाद



És mondd csak , ha már 


हाँ , कह डालो , अगर पहले ही 

खड़ा हूँ रौशनी में अपने असबाब के साथ 

हाँ , कह डालो , मेरे परिचित ,मेरे यार 

क्या वाकई यह पेरिस है ? 


हाइकु  


कुछ भी नहीं रहेगा 

कोई नहीं रहेगा 

बस जो है.....   है 




कवि -  Farnbauer Gábor  

जन्म -  6th May ' 1957


अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 

Tuesday, April 20, 2021

कीर्तिशेष डॉ रमेश कुमार आंगिरस - कर्मयोगी

 


 


 मैं गीत प्यार के गाता हूँ ,  इसलिए जवानी मेरी है 

 मैं ग़म में भी मुस्काता हूँ , इसलिए रवानी मेरी है


प्यार के गीत गाने वाले और ग़म में भी मुस्काने वाले कीर्तिशेष डॉ रमेश कुमार आंगिरस यानी मेरे पिताश्री  दुर्भाग्य से अब हमारे बीच नहीं। उनसे जुडी  अनगिनत यादें  हैं जिन सभी का  ज़िक्र यहाँ संभव नहीं ।  उपरोक्त पंक्तियाँ  बरसों पहले उनकी एक  गीतों  की डायरी में पढ़ी थी , अफ़सोस उस डायरी को मैं सहज कर नहीं रख सका। अपनी युवा अवस्था में पिताश्री   " मज़दूर "  उपनाम से कविताएँ लिखते थे।  प्रसिद्ध कवि श्री बाल स्वरुप राही के समकालीन थे  और उस ज़माने में उनके कवि मित्र भी।  बाद में उन्होंने  कविताएँ लिखनी बंद कर दी  लेकिन सुननी नहीं। अक्सर कवि -सम्मेलनों  में जा कर कविताएँ  सुनना  ,कई बार  तो मेरी माँ  और मुझे भी साथ ले जाते।  मुझे याद तो नहीं पर ऐसा मुझे बताया गया था कि मेरी दूसरी सालगिरह  पर पिताश्री ने घर पर ही एक कवि सम्मेलन का आयोजन करवाया था जिसमे सर्वश्री   बाल स्वरूप राही , देवराज दिनेश , पंडित  रमानाथ अवस्थी  के साथ अन्य समकालीन कवियों ने कविता पाठ किया था। 


हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार के लिए सदा तत्पर रहते थे । हिन्दी भाषा से उनका एक और सम्बन्ध भी है  , उनका जन्मदिन भी १४ सितम्बर ,हिन्दी दिवस के दिन ही पड़ता है । हिन्दी भाषा के अलावा साहित्य के प्रति भी उनकी अभिरुचि थी विशेष रूप से कविता के प्रति।  उन्हें जब भी अवसर मिलता , विभिन्न कार्यालयों में कवि गोष्ठी  का आयोजन करवाते और मेरे द्वारा आयोजित कवि गोष्ठियों में भी श्रोता के रूप में उपस्थित हो कविता का आनंद उठाते। मुझे कविता लिखने की प्रेरणा उनके गीतों को पढ़ने से ही मिली थी। परिचय साहित्य परिषद् की अध्यक्ष स्वर्गीया उर्मिल सत्यभूषण के विशेष आग्रह करने पर आप परिचय साहित्य परिषद् के संरक्षक मंडल में शामिल हो  गए थे।  


       २0 वर्ष की अल्पआयु में ही सरकारी नौकरी मिल गयी थी। LDC , एक साधारण क्लर्क के पद पर ज्वाइन किया लेकिन अपनी मेहनत और लगन से उच्च शिक्षा ग्रहण करी और वर्ष    १९९३ में शिक्षा मंत्रालय से निदेशक ( राज भाषा ) के पद से सेवा निवृत हुए। नौकरी के दौरान उन्हें एक बार इंग्लैंड में भारतीय दूतावास में हिन्दी अधिकारी के रूप में ज्वाइन करने का अवसर मिला लेकिन किन्ही कारणों से उन्होंने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया।    नौकरी के दौरान  ही MA हिन्दी और बाद में पीएचडी की उपाधि प्राप्त करी।  कुरुक्षेत्र विश्विद्यालय में कार्यरत प्रोफेसर डॉ पदम् सिंह शर्मा " कमलेश "उनके पीएचडी के गाइड थे और पीएचडी का विषय था - " निराला काव्य का मनोवैज्ञानिक अध्ययन "। महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला  के साहित्य पर किया गया यह अद्भुत शोध ग्रन्थ है जिसको पिताश्री ने अत्यंत मनोयोग और मेहनत से पूर्ण किया। । अगर यह शोध ग्रन्थ उसी वक़्त प्रकाशित हुआ होता तो निश्चय ही हिन्दी साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण  कृति  के रूप में सम्मानित किया जाता।    यह शोध ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है।  मैंने जब कभी इसके प्रकाशन का ज़िक्र उनसे किया उन्होंने यह कह कर टाल दिया कि इसको अब कौन पढ़ेगा। आशा है अब यह शोध ग्रन्थ शीघ्र   प्रकाशित कर पाउँगा। 


निदेशक , राज भाषा और वसंत विहार , दिल्ली में अपना मकान। इतनी पद- प्रतिष्ठा के बावजूद पिताश्री को घमंड छू भर नहीं गया था  , विशेष रूप से कोई उनके सामने उनकी प्रशंसा करे तो उन्हें संकोच अनुभव होता था।  जिन दिनों पिताश्री निदेशक , राज भाषा के रूप में कार्यरत थे ,उस  समय केंद्रीय हिन्दी निदेशालय के निदेशक, थे डॉ गंगा प्रसाद विमल थे। डॉ विमल से मेरी मुलाक़ात अक्सर साहित्यिक कार्यक्रमों में होती रहती थी। एक बार डॉ गंगा प्रसाद विमल ने भी मुझ से उनके हिन्दी प्रेम और सरल स्वभाव  का ज़िक्र किया।सुनकर गौरान्वित हुआ था। डॉ श्याम सिंह शशि तो हमारे पडोसी ही है और अक्सर मॉर्निंग वाक पर उनकी मुलाक़ात पिताश्री से होती रहती थी।  मैं जब भी  डॉ श्याम सिंह शशि के घर उनसे मिलने जाता ,वे खुले मन से पिताश्री की तारीफ़ करते। उनके दो और अभिन्न मित्र स्वर्गीय डॉ राज कुमार सैनी एवं स्वर्गीय डॉ शेरजंग गर्ग से भी अक्सर साहित्यिक कार्यक्रमों में मुलाक़ाते होती रहती और दोनों मुझसे हमेशा पिताश्री की कुशल क्षेम पूछते रहते । 



कीर्तिशेष डॉ रमेश कुमार आंगिरस बहुत ही सहज , सरल ,विनम्र , हँसमुख और मिलनसार व्यक्ति थे। वास्तव  में आप हर दिल अज़ीज़ इंसान थे ,  जिस किसी से भी पाँच मिनट बात कर लेते , वे उनके मुरीद हो जाते।   सदैव दूसरो की मदद को तत्पर रहते , कोई आधी रात को भी उनसे मदद की गुहार करता तो उसके साथ चल पड़ते   ।एक कवि मन रखने  के कारण पिताश्री अत्यंत  भावुक प्रकृति के व्यक्ति थे। स्वाभिमान तो उनमे कूट कूट के भरा था , जीवन में कभी भी नीचे गिर कर किसी चीज़ को नहीं उठाया।   बनावट और आडंबरों से कोसो दूर यह कर्मयोगी  रात- दिन मेहनत करते थे। मैंने अनेक बार उन्हें रात रात भर काम करते देखा है। जब तक हाथ में आया काम पूर्ण नहीं कर लेते , उन्हें चैन नहीं पड़ता था।   सेवा निवृत होने के बाद उनके पास कई सरकारी और ग़ैर सरकारी कार्यालयों से हिन्दी - अँगरेज़ी अनुवाद का निरंतर काम आता था।हिन्दी -अँगरेज़ी दोनों भाषाओँ पर उनका समान अधिकार था। अनेक परीक्षाओं के पर्चें भी उनके पास जाँच के लिए आते थे। उन्होंने और भी कई विषयों पर लेखन कार्य किया लेकिन किन्ही कारणों से यह लेखन कार्य उनके नाम से प्रकाशित नहीं हो पाया ।


भाषाविद स्वर्गीय  पंडित  ओमदत्त शास्त्री के पुत्र  कीर्तिशेष डॉ रमेश कुमार आंगिरस सौभाग्य से मेरे पिता है और दुर्भाग्य यह है कि आज हमारे बीच नहीं है। एक पुत्र होने के नाते मेरी अनगिनत यादे उनसे जुडी हैं। उनके रहते कभी किसी बात की फ़िक्र नहीं करी।  मेरे अपने जीवन की अनेक कठिनाइयों  को उन्होंने दूर किया और मुझे  सदैव एक मित्र की तरह समझा। उनका आशीर्वाद सदा मेरे साथ रहा। 

ईश्वर से यही प्रार्थना है कि उनकी आत्मा को शान्ति मिले और मुझे ,उनके अधूरे कार्य पूरा करने का सम्बल। 

Thursday, April 8, 2021

Mihály Babits की हंगेरियन कविता का हिन्दी अनुवाद


 




घर में पुराने काग़ज़ 
टटोलते हुए अचानक मिल गया Mihály Babits  की हंगेरियन कविता का हिन्दी अनुवाद  । 

प्रस्तुत है मेरे द्वारा किया गया पहली हंगेरियन कविता का हिन्दी अनुवाद -



शून्य से  एक नया  संसार बनाया है मैंने 


अंतरिक्ष में क़ैद किया मस्तिष्क  हमारा ईश्वर ने 

एक बंदी  बना दिया  मस्तिष्क   हमारा ईश्वर ने 

उड़ना तो अब दूर इन घिनोने  लालची परों का 

छूना दूभर होगा  अंतरिक्ष की सुनहरी हदों का 


उन्मुक्त विचारों के पक्षी को आधार बनाया है मैंने 

जिसने बदल   करवट झाँका   पिंजरे के  जाले से 

शून्य से  फिर   एक नया   संसार बनाया है मैंने

जैसे बन जाये  रस्सी   कोई  क़ैदी  मकड़ जाले से 


ज़िंदगी के इन छोटे छोटे आयामों से उठ कर 

अपनी दृष्टि का  अलग क्षितिज नया  गढ़ कर 

तोड़ दी सब सीमाएँ अब स्वयं राजा  बन कर 


देखो इयूक्लिदिश  ! 


असंभव पर संभव की विजय पताका 

तुम्हारे द्वारा निर्मित सलाखों को तोड़ कर 

सुनो  इयूक्लिदिश,

साथ साथ मेरा और ईश्वर का हँसना 

धूम - धड़ाका। 


कवि -  Mihály Babits 

जन्म - 26 November ' 1883 .   Szekszárd 

निधन -  04 August ' 1941 . Budapest 


अनुवादक -  इन्दुकांत  आंगिरस