हम साहित्य की पुस्तकों में यही पढ़ते आये हैं कि कोई भी संस्कृति और भाषा जब तक दूसरी संस्कृतियों और भाषाओं से आदान -प्रदान नहीं करती तब तक उसका विकास संभव नहीं। जिस संस्कृति और भाषा ने दूसरी संस्कृतियों और भाषाओं से आदान -प्रदान नहीं किया वह धीरे धीरे लुप्त हो गयी। समुन्दर , सभी नदियों के जल को आत्मसात करता है फिर चाहे वह पानी झेलम का हो या गंगा का , इसीलिए वह समुन्दर कहलाता है। भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है और इसने सदैव दूसरी संस्कृतियों के साथ आदान -प्रदान किया है , इसीलिए भारतीय संस्कृति आज भी जीवित है। भारत में हिन्दू धर्म के अलावा बौद्ध , सिख ,ईसाई , जैन एवं इस्लाम धर्म के अनुयायी रहते हैं।
अलग अलग धर्मों की भिन्न भिन्न मान्यताएँ हो सकती हैं , उनके रीति रिवाज़ अलग हो सकते हैं लेकिन मानवीय संवेदनाएं लगभग सभी में एक जैसी होती हैं। ख़ुशी में सभी हँसते है और दुःख में सभी रोते हैं।
धर्म के आधार पर सरहदों को बनाया जा सकता है लेकिन साहित्य ,कला और संगीत को सरहदों में नहीं बांटा जा सकता। लेकिन अफ़सोस कि आज साहित्य और भाषा को भी सरहदों में क़ैद करा जा रहा है। गंगा - जमुनी तहज़ीब का जुमला अब धुंधलाता जा रहा है। हिन्दी और उर्दू भाषा में अब पहले जैसा प्रेम देखने को नहीं मिलता। सबसे बड़ी विडंबना तो यह है कि समाज का मार्गदर्शन करने वाला साहित्य भी आज इस षड़यंत्र का शिकार हो चुका है। एक ज़माना था जब कोई भी कवि सम्मेलन किसी मुस्लिम शाइर के बिना पूरा नहीं होता था और हर मुशायरे में किस न किसी हिन्दू कवि का होना लाज़मी था। लेकिन आजकल यह सब लुप्त होता जा रहा है। अब तो हालात यह है कि भारतीय संस्कृति की एक पत्रिका के मालिक को इस बात से भी ऐतराज है कि पत्रिका में उर्दू भाषा के शब्दों का प्रयोग हो। संभव है ऐसे पटल उर्दू साहित्य जगत में भी हो जिन्हें हिन्दी के शब्दों से परहेज हो।
ऐसा लगता है जैसे संस्कृति की तलवारे अब ज़बानो को काटने में लगी हैं।
हो सकता है कल हम लोग मुहम्मद रफ़ी के गाने सुनना बंद कर दें , साहिर लुधियानवी के गीतों को दफ़्ना दें
हो सकता हैं हम कल सूरज की किरणों पर भी अपने अपने धर्मों की मोहर लगा दें
हो सकता कल हमारी प्रार्थना को अल्लाह ठुकरा दें और उनकी नमाज़ को ठुकरा दें ईश्वर
हो सकता है कल रोने पर हमारी आँखों से अश्क़ न निकले और उनकी आँखों से आँसू ...
किसी शाइर ने कहा है -
हिन्दी और उर्दू में फ़र्क़ है तो इतना
वो ख़्वाब देखते हैं हम देखते हैं सपना
अब पानी को आब कह देने से पानी रहेगा तो पानी ही , अदब की दुनिया में जो भाषाओं पर पाबंदी लगाये और जो पानी की फ़ितरत को न समझे , उस का तो पानी पानी हो जाना ही बेहतर है।
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