Thursday, February 11, 2021

बकरे की माँ कब तक ख़ैर मनाएगी....

 




इंसान का जानवर से रिश्ता सदियों पुराना है, देखा जाये तो आदि मानव की शक्ल वनमानुष  से बहुत मिलती - जुलती है। ज़ाहिर है कि इंसान पहले जानवरों के साथ साथ जंगल में ही रहा करते थे। शायद यही कारण है कि इंसानों के अंदर भी अक्सर जानवर पाए जाते हैं। अँगरेज़ी भाषा में एक कहावत है -  Man is a social animal .


समय के साथ साथ इस समाजिक प्राणी ने अपनी एक अलग दुनिया बना ली और जंगलों को छोड़ कर गावँ , कस्बों और शहरों  में रहने लगा लेकिन जानवरों का साथ नहीं छूटा। बहुत से पालतू जानवरों को इंसान आज भी पालता है क्योंकि उनको पालने से इंसान की बहुत - सी ज़रूरतें पूरी होती हैं। 


उपरोक्त तस्वीर कुछ साल पहले की है , जिसमे एक चरवाहा अपनी बकरियों को चराने के लिए अक्सर मेरे अपार्टमेंट के सामने वाले खुले मैदान में आता था। लेकिन कुछ बरस पहले वहाँ एक नया अपार्टमेंट बन गया और गड़ेरिया का आना बंद हो गया। बकरी पालन दूध और माँस  के लिए किया जाता है। बकरी का दूध और बकरे का माँस।  बकरी का दूध बड़ा मुफ़ीद होता है विशेषरूप से बच्चों के लिए। महात्मा गाँधी  भी बकरी का दूध पिया  करते थे।   

बकरी को कुछ लोग बुज़ कह कर भी सम्बोधित करते हैं  , बुज़ से बुज़दिल। जी हाँ , बकरी होती है बुज़दिल यानी डरपोक। कवियों और लेखकों  ने जानवरों पर ख़ूब लिखा है। पंचतंत्र की कहानियाँ भी जानवरों पर आधारित हैं  और जानवरों से सम्बंधित अनेक बाल कविताएँ भी लिखी गयी हैं।  बकरी के बारे में ज़फ़र इक़बाल का यह मजाहिया तंज़  देखें  -


ज़ैद से   ज़ैदी  बना और बक्र  से बकरी हुआ 

सामना बुज़दिल से था  मैं इसलिए बकरी हुआ 

यूँ सजा रखा था क़ुर्बानी का बकरा शोख़ ने 

दिल  हमारा  देखते ही  देखते  बकरी हुआ   


ईद उल जुहा यानी बकरीद मुस्लिमों का ख़ास त्यौहार होता है जिसमे बकरे की क़ुर्बानी दी जाती है। इस अवसर पर बकरे की क़ुर्बानी देने के लिए अक्सर उसे घरों में पाला भी जाता है और क़ुर्बानी के लिए उसे खूब खिलाया - पिलाया भी जाता है। इसी प्रसंग पर अपनी एक कविता याद आ गयी -


ईद उल जुहा


कल देखा था उसे 

झूमता जाता था सड़कों पे 

रस्सी से बंधा  था , लेकिन ख़ुश था  

उसे नहीं मालूम था कि कल ईद है 

बकरीद 

और उसे होना ही पड़ेगा हलाल 

अपने मालिक की   ख़ुशी के लिए 

उसके शरीर की  वो बोटियाँ 

जिन पर स्नेह से उसका मालिक 

और उसकी बिटिया 

प्यार भरा हाथ फेरते थे 

अब उनके दाँतों  में दबी होंगी 

जिन्हें चबा चबा कर वो 

लगाता होगा हिसाब 

उस पर किये गए खर्चे का , 

हाँ , यक़ीनन 

मेरा पड़ोसी को हुआ था फ़ायदा

यह ईद तो गयी 

अब अगली बकरीद के लिए 

पड़ोसी फिर ख़रीद लाएगा 

कोई खस्ता हाल ,सस्ता - सा बकरा 

जो  अगली ईद तक 

बन जायेगा मोटा - तगड़ा


लेकिन इस बार शायद मेरे पड़ोसी को 

बकरा हलाल करने का सुअवसर न मिले 

देखते देखते बकरीद ने फिर दी दस्तक 

हाँ , कल है  ईद उल जुहा

कल शायद यह बकरा भी हलाल हो जाये 

या शायद नहीं भी ,

अगली सुबह नींद से उठा 

तो मालूम पड़ा कि

पड़ोसी का बकरा 

रस्सी तोड़ कर भाग गया कल रात 

और पड़ोसी 

अपना माथा ठोंके बैठा है उदास 

मेरे पड़ोसी को 

शायद ही कभी यह  मालूम पड़े कि

उसका वो पाला - पलोसा    बकरा 

यूँ ही अचानक नहीं था भागा

बल्कि उसे सिखाई  थी मैंने गिनती 

और फिर कैलेंडर पढ़ना  

और बताया था बकरीद के बारे में 

उसने ज़रूर कल कैलेंडर पढ़ा होगा 

और रस्सी तोड़ कर भाग गया होगा 

अपनी साँसों में भर कर नयी उमंग 

मैं ख़ुश था ,मेरी मेहनत लाई  थी रंग। 



लेकिन..........  बकरे की माँ कब तक ख़ैर मनाएगी......



फ़ोटोग्राफर - इन्दुकांत आंगिरस  



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