Friday, February 12, 2021

लिथुआनियन लोक कथा - Sveika moteris ir velnias का हिन्दी अनुवाद

 Sveika moteris ir velnias - राक्षस की स्वस्थ पत्नी 


प्राचीन समय की बात है।  किस भी अस्वस्थ व्यक्ति को ठीक करने की कला में निपुण एक औरत रहती थी। एक रात उसके पास एक आदमी आया। उसने उसे बताया कि उसके घर में बहुत कुछ ग़लत  घटित हो रहा है और वह उस औरत को अपने साथ अपने घर ले गया। वे एक बड़े महल में पहुँचे।  वह आदमी उस औरत को उस कमरे में ले गया जहाँ उसकी बीमार पत्नी लेटी हुई थी। उस औरत ने उसकी पत्नी को कुछ दवा खिलाई जिससे वह जल्दी ठीक हो गयी। उस आदमी ने उस औरत से पूछा - मैं आपको इस सेवा के लिए कितने पैसे दूँ ?    


उस औरत ने कहा  कि  उसे कुछ नहीं चाहिए।  उस आदमी ने एक टोकरी उठाई और दूसरे कमरे में चला गया। जब वह वापिस आया तो उसकी टोकरी में कुछ कोयले के टुकड़े थे। उसने कोयले के टुकड़े उस औरत को दिए और उसे  दरवाज़े तक छोड़ने आया। उस औरत को इतने सारे कोयलों के टुकड़े उठाना कुछ  बोझ सा - लगा और उसने बहुत से कोयलों के टुकड़े वही ज़मीन पर गिरा दिए। वह बहुत थोड़े कोयले लेकर अपने घर पहुँची। घर पहुँचने पर उसने देखा  कि कोयलों  के टुकड़े सोने के सिक्को में बदल चुके थे।  वह ख़ुशी से झूम उठी और उसके बाद आनंद से अपना जीवन व्यतीत करने लगी । 





अनुवादक - इन्दुकान्त आंगिरस 









  

Thursday, February 11, 2021

बकरे की माँ कब तक ख़ैर मनाएगी....

 




इंसान का जानवर से रिश्ता सदियों पुराना है, देखा जाये तो आदि मानव की शक्ल वनमानुष  से बहुत मिलती - जुलती है। ज़ाहिर है कि इंसान पहले जानवरों के साथ साथ जंगल में ही रहा करते थे। शायद यही कारण है कि इंसानों के अंदर भी अक्सर जानवर पाए जाते हैं। अँगरेज़ी भाषा में एक कहावत है -  Man is a social animal .


समय के साथ साथ इस समाजिक प्राणी ने अपनी एक अलग दुनिया बना ली और जंगलों को छोड़ कर गावँ , कस्बों और शहरों  में रहने लगा लेकिन जानवरों का साथ नहीं छूटा। बहुत से पालतू जानवरों को इंसान आज भी पालता है क्योंकि उनको पालने से इंसान की बहुत - सी ज़रूरतें पूरी होती हैं। 


उपरोक्त तस्वीर कुछ साल पहले की है , जिसमे एक चरवाहा अपनी बकरियों को चराने के लिए अक्सर मेरे अपार्टमेंट के सामने वाले खुले मैदान में आता था। लेकिन कुछ बरस पहले वहाँ एक नया अपार्टमेंट बन गया और गड़ेरिया का आना बंद हो गया। बकरी पालन दूध और माँस  के लिए किया जाता है। बकरी का दूध और बकरे का माँस।  बकरी का दूध बड़ा मुफ़ीद होता है विशेषरूप से बच्चों के लिए। महात्मा गाँधी  भी बकरी का दूध पिया  करते थे।   

बकरी को कुछ लोग बुज़ कह कर भी सम्बोधित करते हैं  , बुज़ से बुज़दिल। जी हाँ , बकरी होती है बुज़दिल यानी डरपोक। कवियों और लेखकों  ने जानवरों पर ख़ूब लिखा है। पंचतंत्र की कहानियाँ भी जानवरों पर आधारित हैं  और जानवरों से सम्बंधित अनेक बाल कविताएँ भी लिखी गयी हैं।  बकरी के बारे में ज़फ़र इक़बाल का यह मजाहिया तंज़  देखें  -


ज़ैद से   ज़ैदी  बना और बक्र  से बकरी हुआ 

सामना बुज़दिल से था  मैं इसलिए बकरी हुआ 

यूँ सजा रखा था क़ुर्बानी का बकरा शोख़ ने 

दिल  हमारा  देखते ही  देखते  बकरी हुआ   


ईद उल जुहा यानी बकरीद मुस्लिमों का ख़ास त्यौहार होता है जिसमे बकरे की क़ुर्बानी दी जाती है। इस अवसर पर बकरे की क़ुर्बानी देने के लिए अक्सर उसे घरों में पाला भी जाता है और क़ुर्बानी के लिए उसे खूब खिलाया - पिलाया भी जाता है। इसी प्रसंग पर अपनी एक कविता याद आ गयी -


ईद उल जुहा


कल देखा था उसे 

झूमता जाता था सड़कों पे 

रस्सी से बंधा  था , लेकिन ख़ुश था  

उसे नहीं मालूम था कि कल ईद है 

बकरीद 

और उसे होना ही पड़ेगा हलाल 

अपने मालिक की   ख़ुशी के लिए 

उसके शरीर की  वो बोटियाँ 

जिन पर स्नेह से उसका मालिक 

और उसकी बिटिया 

प्यार भरा हाथ फेरते थे 

अब उनके दाँतों  में दबी होंगी 

जिन्हें चबा चबा कर वो 

लगाता होगा हिसाब 

उस पर किये गए खर्चे का , 

हाँ , यक़ीनन 

मेरा पड़ोसी को हुआ था फ़ायदा

यह ईद तो गयी 

अब अगली बकरीद के लिए 

पड़ोसी फिर ख़रीद लाएगा 

कोई खस्ता हाल ,सस्ता - सा बकरा 

जो  अगली ईद तक 

बन जायेगा मोटा - तगड़ा


लेकिन इस बार शायद मेरे पड़ोसी को 

बकरा हलाल करने का सुअवसर न मिले 

देखते देखते बकरीद ने फिर दी दस्तक 

हाँ , कल है  ईद उल जुहा

कल शायद यह बकरा भी हलाल हो जाये 

या शायद नहीं भी ,

अगली सुबह नींद से उठा 

तो मालूम पड़ा कि

पड़ोसी का बकरा 

रस्सी तोड़ कर भाग गया कल रात 

और पड़ोसी 

अपना माथा ठोंके बैठा है उदास 

मेरे पड़ोसी को 

शायद ही कभी यह  मालूम पड़े कि

उसका वो पाला - पलोसा    बकरा 

यूँ ही अचानक नहीं था भागा

बल्कि उसे सिखाई  थी मैंने गिनती 

और फिर कैलेंडर पढ़ना  

और बताया था बकरीद के बारे में 

उसने ज़रूर कल कैलेंडर पढ़ा होगा 

और रस्सी तोड़ कर भाग गया होगा 

अपनी साँसों में भर कर नयी उमंग 

मैं ख़ुश था ,मेरी मेहनत लाई  थी रंग। 



लेकिन..........  बकरे की माँ कब तक ख़ैर मनाएगी......



फ़ोटोग्राफर - इन्दुकांत आंगिरस  



Wednesday, February 10, 2021

हंगेरियन कवि Lengyel Tamás के हाइकु का हिन्दी अनुवाद


Poetica , hátra ars  -  पीछे लौटती कविता की कला 


थक गया  हूँ मैं 

सिर्फ़ ख़ुदा जाने , है कितना मुश्किल 

ख़ुदा बनना  


? - ? 


सुन्दर है कविता 

विस्मृति, लेकिन अफ़सोस कुछ भी 

मुझे याद नहीं आता 



Vadászat - शिकार 


कविता है एक जानवर 

काला  तेंदुआ, सिर्फ़ रात में

करना शिकार उसका 


Egyszer majd - एक बार बाद में 


शलभ खा गया ईश्वर 

प्रजाति को , ताक से देखता हूँ    

मैं ख़ुद को भी 



कवि - Lengyel  Tamás

जन्म - 29th June , 1971. Nagyszőlős


अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस  

Friday, February 5, 2021

बैठे हैं  रहगुज़र  पे हम...

 

 

                                                           बैठे हैं रहगुज़र पे हम 
                    


मैंने पिछले दिनों तस्वीरों से जुड़ा एक नया  ब्लॉग - www.fototruth.blogspot.com  के नाम से शुरू किया था लेकिन मुझे बाद में महसूस हुआ कि साहित्य और समाज तो जुड़े हए हैं तो फिर समाजिक विसंगतियों को उजागर करने के लिए एक अलग ब्लॉग की  आवश्यकता नहीं। प्रथम प्रगतिवादी लेखक सम्मेलन में पंडित नेहरू ने कहा था कि स्वभावतः हरेक  लेखक व्यक्तिवादी होता है लेकिन अगर वह समकालीन समाज के प्रति जागरूक नहीं है तो उसका लेखन व्यर्थ है।


तस्वीरें खींचने का शौक़ बहुत कम उम्र से ही लग गया था। कई सालों तक फ़ोटोग्राफ़ी का काम भी किया।  मैं कोई प्रोफ़ेशनल फोटोग्रफर तो नहीं हूँ लेकिन जब-तब कुछ तस्वीरें खीचीं। अब उन्हीं तस्वीरों को शब्दों में उतारने की कोशिश है।  तस्वीरें कभी झूठ नहीं बोलती अपने द्वारा खींची हुई चंद तस्वीरों के  ज़रीये मैं  आम आदमी की  ज़िंदगी   पर अपनी चिंता दर्ज़ करूँगा और आशा है कि ये चिंताएँ कही न कही , कभी न कभी आपको भी विचार करने का अवसर प्रदान करेंगी।  इस प्रकार हम मिल कर एक बेहतर समाज , बेहतर देश और बेहतर संसार के निर्माण कर पाएँगे।



 दैर  नहीं, हरम नहीं, दर नहीं, आस्ताँ  नहीं 

  बैठे हैं  रहगुज़र  पे हम ग़ैर हमे  उठाए क्यूँ 



मिर्ज़ा ग़ालिब को उपरोक्त शे'र आज २०० साल बाद भी हमारी ज़िंदगी से जुड़ा हुआ है।  यह तस्वीर बैंगलोर की एक गली की है। बैंगलोर शहर झीलों के लिए तो मशहूर है ही लेकिन इस शहर में आपको हज़ारों की संख्या में PG भी मिल जायेंगे। PG  अर्थात पेइंग गेस्ट। इनमें लाखों लोग रहते हैं , अधिकतर रहने वाले युवा कर्मचारी होते हैं जो दूर दराज़ गाँव , कस्बों और शहरों से बैंगलोर महानगर में नौकरी करने के लिए  आते हैं , लेकिन कुछ बदनसीब ऐसे भी होते हैं जिनके सर पर छत नहीं होती हैं। ज़मीन का बिस्तर , पत्थर का सिरहाना और आकाश की चादर  ओढ़ने वाले इन बदनसीबों को PG भी नसीब नहीं होता। मेरी जानकारी में बैंगलोर शहर में ग़रीब लोगो के लिए रैन बसेरे भी नहीं हैं।  चंद लोगो के लिए अपना घर एक  ख़्वाब ही  बन कर रह जाता है। दीवार पर चिपके PG के इश्तिहार के ठीक नीचे बैठा यह इंसान अब ख़ुद एक इश्तिहार बन चुका है।  उपरोक्त तस्वीर देख कर  अबरार आज़मी का यह शे'र ज़ेहन में आ गया -


ख़ुशनुमा दीवार -- दर के ख़्वाब ही  देखा किए

जिस्म सहरा ज़ेहन वीरां ,   आँख गीली हो गयी


जिस बेशर्म दुनिया ने रहज़न बन  राहगीर को रहगुज़र पर लूटा हो , उसका  रहबर ख़ुदा के अलावा कौन हो सकता  है । 






फ़ोटोग्राफर - इन्दुकांत आंगिरस  











Wednesday, February 3, 2021

संस्कृति की तलवार और ज़बानें

 

हम साहित्य की पुस्तकों में यही पढ़ते आये हैं कि कोई भी संस्कृति और भाषा जब तक दूसरी संस्कृतियों और भाषाओं  से आदान -प्रदान नहीं करती तब तक उसका विकास संभव नहीं।  जिस संस्कृति और भाषा ने दूसरी संस्कृतियों और भाषाओं से आदान -प्रदान नहीं किया वह धीरे धीरे लुप्त हो गयी। समुन्दर , सभी नदियों के जल को आत्मसात करता है फिर चाहे वह पानी  झेलम का हो या गंगा का , इसीलिए वह समुन्दर कहलाता है।  भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है और इसने सदैव दूसरी संस्कृतियों के साथ आदान -प्रदान किया है , इसीलिए भारतीय संस्कृति आज भी जीवित है। भारत में हिन्दू धर्म के अलावा बौद्ध , सिख ,ईसाई , जैन एवं इस्लाम धर्म के अनुयायी रहते हैं। 

अलग अलग धर्मों की भिन्न भिन्न मान्यताएँ  हो सकती हैं , उनके रीति रिवाज़ अलग हो सकते हैं लेकिन मानवीय संवेदनाएं लगभग सभी में एक जैसी होती हैं। ख़ुशी में सभी हँसते है और दुःख में सभी रोते हैं। 

धर्म के आधार पर सरहदों को बनाया जा सकता है लेकिन साहित्य ,कला और संगीत को सरहदों में नहीं बांटा जा सकता। लेकिन अफ़सोस कि आज साहित्य और भाषा को  भी सरहदों में क़ैद करा जा रहा है। गंगा - जमुनी तहज़ीब का जुमला अब धुंधलाता जा रहा है। हिन्दी और उर्दू भाषा में अब पहले जैसा प्रेम देखने को नहीं मिलता।  सबसे बड़ी विडंबना  तो यह है कि समाज का मार्गदर्शन करने वाला साहित्य भी आज इस षड़यंत्र का शिकार हो चुका है।  एक ज़माना था जब कोई भी  कवि सम्मेलन किसी मुस्लिम शाइर के बिना पूरा नहीं होता था और हर मुशायरे में किस न किसी हिन्दू कवि का होना लाज़मी था।  लेकिन आजकल यह सब लुप्त होता जा रहा है।  अब तो हालात  यह है कि भारतीय संस्कृति की एक पत्रिका के मालिक  को इस बात से भी ऐतराज है कि  पत्रिका में उर्दू भाषा के शब्दों का प्रयोग हो। संभव है ऐसे पटल उर्दू साहित्य जगत में भी हो जिन्हें हिन्दी के शब्दों से परहेज हो। 

ऐसा लगता है जैसे संस्कृति की तलवारे अब ज़बानो को काटने में लगी हैं।     

हो सकता है कल हम लोग मुहम्मद रफ़ी के गाने सुनना बंद कर दें , साहिर लुधियानवी के गीतों को दफ़्ना दें  

हो सकता हैं हम कल सूरज की किरणों पर भी अपने अपने धर्मों की मोहर लगा दें 

हो सकता कल हमारी प्रार्थना को अल्लाह ठुकरा दें और उनकी नमाज़ को ठुकरा दें ईश्वर 

हो सकता है कल रोने पर हमारी आँखों से  अश्क़ न निकले और उनकी आँखों से आँसू ...


किसी शाइर ने कहा  है -


हिन्दी  और  उर्दू में फ़र्क़ है  तो इतना 

वो ख़्वाब देखते हैं हम देखते हैं सपना   


अब पानी को आब कह देने से पानी रहेगा तो पानी ही , अदब की दुनिया में जो भाषाओं पर पाबंदी लगाये और जो पानी की फ़ितरत को न समझे , उस का तो पानी पानी हो जाना ही बेहतर है।