सर्द डूबती शाम की किरणें बोर्डिंग स्कूल की छत से टकरा कर नीचे की ओर निरंतर बंजर मैदान में पसरती जा रही थी जैसे कि एक कुरूप सौ पैरों वाली मकड़ी का जाला फैलता जाता है... फैलता ही जाता है ओर उस जाले के बीच मकड़ी एक मूढ़ स्थिरता के साथ बैठी रहती है। कैसे रेंगता है समय - अभी सिर्फ पौने चार बजे है। मठ के बग़ीचों के नंगे पेड़ ओर ग्रिल की खिड़कियों वाली उस इमारत के गहराते सुरमई पंख। उबाऊ है -- बहुत उबाऊ । १७ साल की उम्र में बाहर खिड़कियों में देखना भी ठीक नहीं , हाँ ,जब बड़े हो जायेंगे तो उछलते हुए बेसब्री से भविष्य की ओर बढ़ेंगे लेकिन तब तक , एक और ख़ूबसूरत साल के लिए रहेंगे क़ैद इस पत्थर वाले ताबूत में। आज जैसा ही कल भी होगा। हर आधे घंटे में बजती घंटियों की आवाज़ शाम को अधिक ग़मगीन बना देगी - प्रार्थना , यज्ञ , सामूहिक उत्सव , अगरबत्ती ,आध्यात्मिक अभ्यास , शिविर , साधारण चक्की। मरे हुए दिन , गहरी नींद और चुराई हुई राते। गणित ,भूगोल और संगीत की कक्षा और सब कुछ फिर से शुरू।
अब संगीत की कक्षा थी और मैं पियानो के नज़दीक बैठी थी। मेरे सामने बेंचों की कतार थी , मकड़ी के जाले जैसी आँखों वाली लड़कियों के पंक्तिबद्ध सिर और मेरी बगल में कुर्सी पर पीछे की तरफ़ झुकी बैठी थी मेरी मठवासिनी अध्यापिका - सिस्टर अनुनत्सया ।
कवियत्री - Kaffka Margit
जन्म - 10th June ' 1880 , Nagykároly
निधन - 1s December ' 1918 , Budapest
अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस
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