आज अरबी , फ़ारसी , उर्दू से होते हुए हिन्दी और हिन्दुस्तान की दीगर ज़बानों में ग़ज़ल कही जा रही है। ग़ज़ल का जादू चढ़ता जा रहा है और इसकी लोकप्रियता दिनोदिन बढ़ती जा रही है। विशेषरूप से ग़ज़ल गायकों ने ग़ज़ल को जन जन तक पहुँचाया। ग़ज़ल कहना एक मुश्किल फ़न है , जी हाँ ग़ज़ल लिखी नहीं जाती बल्कि कही जाती है। एक ज़माना था जब ग़ज़ल में अशआर के मौजूं सिर्फ़ आशिक़ और माशूक़ के दिलों तक सीमित थे लेकिन आज ग़ज़ल में समाज के सब पहलू देखने को मिलते है और इसका श्रेय विशेषरूप से हिन्दी ग़ज़लकारों को जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि हिन्दी ग़ज़लकारों को उर्दू ग़ज़ल के उरूज़ समझने में मुश्किल आती है लेकिन पिछले कुछ दशकों में हिन्दी ग़ज़लकारों ने बेहतरीन ग़ज़लें कही हैं।
उर्दू अदब में उस्ताद और शागिर्द की एक तवील रवायत है लेकिन हिन्दी साहित्यिक संसार में गुरु - शिष्य की परम्परा उतनी नहीं मिलती। उर्दू और हिन्दी साहित्यिक संसार में अनेक साहित्यिक संस्थाएँ मिल जाएँगी , कुछ संस्थाएँ छोटी हैं तो कुछ बड़ी। कुछ शाइरों का मानना है कि किसी बड़े इदारे या बड़ी संस्था से जुड़ कर उनका अपना मुक़ाम ऊपर उठ जायेगा लेकिन यह सच नहीं। पिछले दिनों हल्क़ा-ए-तश्नगाने अदब , दिल्ली की ५३० वी नशिस्त में जनाब प्रमोद शर्मा 'असर ' द्वारा पढ़ा गया यह शे'र देखे -
इदारे से बड़े जुड़ कर जो इतराये उन्हें कह दो
ग़ज़ल ख़ुद कहनी पड़ती है , इदारा कुछ नहीं करता
बहुत सुंदर
ReplyDeleteGood one!
ReplyDeleteबहुत सही और उम्दा बात कही आपने।
ReplyDeleteवाह।