Sunday, August 14, 2022

वसंत का ठहाका - - अभी मैं प्यार हुआ नहीं हूँ

 

स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर मेरी एक ताज़ा कविता



अभी मैं प्यार हुआ नहीं हूँ


भारत से पहचान है मेरी

लेकिन मुझसे भारत की नहीं

क्योंकि मुझ पर हैं अभी बहुत मुलम्मे

और उन मुलम्मों की परतों में

मेरा अपना वजूद भी है लापता

मुझमें और मेरी पहचान में

अभी है दो जहां का फासला

अभी एक जानवर हूँ मैं

और जंगली है मेरा काफ़िला

 

 अभी, मैं बस्ती जलाने में लगा हूँ

मंदिर- मस्जिद बनाने में लगा हूँ

पुस्तकों को जलाने में लगा हूँ

संस्कारों को भुलाने  में लगा हूँ

अभी अपनी प्यास बुझाने को

नदियों को मिटाने में लगा हूँ

एक  दुनिया नई बसाने में लगा हूँ 

 

विस्फोट और ज़हर भरी दुनिया

एक अंधी और बहरी दुनिया

काग़ज़ी ख़ुश्बू से महकती दुनिया

बुझे चूल्हों पर उबलती  दुनिया

चंद सिक्कों पर खनकती दुनिया

मुखौटों में छिपी ठनकती दुनिया 

 

 अभी घर में रह कर बेघर हूँ मैं

अभी एक  जलता समुन्दर हूँ मैं

अभी इक शैतान से है मेरी यारी 

अभी रोती है , मेरी  माँ प्यारी 

 

अभी लाशों पर सोता हूँ मैं

अपनी लाश ख़ुद ढोता हूँ मैं

अभी रात है काली  बहुत

ज़िंदगी अभी गाली  बहुत

 

अभी रोज़ बिकता हूँ मैं

अभी रोज़ लिखता हूँ मैं

अख़बार समझ के पढ़ लेना

अभी मैं प्यार हुआ नहीं हूँ।



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


5 comments:

  1. बहुत सुंदर वाह

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  2. इंसानियत के पीछे छूटते जाने का दर्द बहुत ही मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त हुआ है आपकी इस कविता में। शुभकामनाएं।

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  3. बहुत खूब।
    आंगिरस जी

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  4. बेहतरीन अभिव्यक्ति

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