Tuesday, August 30, 2022

कीर्तिशेष सुभाष चड्ढा ( साहित्यकार सविता चड्ढा के पति )

 


                                                                  कीर्तिशेष सुभाष चड्ढा




29 अगस्त , 2022 को श्रीमती सविता चड्ढा के  पति श्री  सुभाष चड्ढा के गोलोक गमन का समाचार मिला तो मन का एक कोना रिक्त हो गया और कुछ पुरानी यादें ताज़ा हो गयी।  लगभग ३4-35 वर्ष पूर्व  परिचय साहित्य परिषद् की प्रारम्भिक गोष्ठियों में रूसी सांस्कृतिक केंद्र , दिल्ली  में उनसे पहली बार मुलाक़ात हुई थी। सुभाष जी कवि  नहीं थे  लेकिन कविता के रसिक ज़रूर थे। अक्सर सविता जी के साथ गोष्ठियों में आते और कविताओं का आनंद उठाते। 

हम लोग अक्सर अपनी बिरादरी के लोग यानी कवियों और लेखकों के बारे में तो लिखते है लेकिन उन श्रोताओं को भूल जाते हैं जिनकी उपस्थिति से कवि - गोष्ठियाँ और नशिस्तें हमेशा आबाद होती रही हैं। सुभाष जी एक सजग श्रोता थे और उनकी कमी हमे हमेशा उदास करेगी। 

मेरी उनसे कभी अंतरंग बाते तो नहीं हो पाई लेकिन आकर्षक  व्यक्तित्व के धनी सुभाष जी शौक़ीन और बिंदास आदमी थे। पेशे से फ़ोटोग्राफर थे और अपने  रानी बाग़, दिल्ली  के मकान नंबर 899 के ग्राउंड फ्लोर पर अपना स्टूडियो चलाते थे। पहनावा चुस्त और दुरुस्त , अक्सर जैकेट या कोट -पतलून और नेकटाई। हमेशा गर्मजोशी से मिलते , हल्की मुस्कराहट से अतिथियों  का  स्वागत  करते , विशेषरूप  से जब उनके निवास स्थान पर कोई कवि गोष्ठी या नशिस्त का आयोजन होता तो कवियों - लेखकों के स्वागत में कोई कमी न छोड़ते।  

 सुभाष जी ने सदैव अपनी पत्नी सविता चड्ढा को लेखन के लिए प्रोत्साहित किया बल्कि यूँ समझिये कि अगर सुभाष जी का सहयोग नहीं होता तो सविता जी का लेखन क्षेत्र में  वो मुक़ाम नहीं होता , जो आज उन्हें हासिल है। वास्तव में यह सुभाष जी का सपना था कि सविता जी एक प्रतिष्ठित साहित्यकार के रूप में स्थापित हो और यह ख़ुशी की बात है कि उनके जीवन काल में ही उनका सपना पूरा हो गया। 

जब तक दिल्ली में था तो कभी कभी उनसे मिलना हो जाता था , लेकिन पिछले 15 सालों से बैंगलोर में रहने के कारण यह सिलसिला टूट गया। पिछले वर्ष बैंगलोर में आयोजित : सर्वभाषा समन्वय समिति के साहित्यिक कर्नाटक उत्सव में सविता जी से मुलाक़ात हुई तो बहुत सी  यादे फिर से ताज़ा हो गयी थी। 


आशा है सुभाष जी के प्रेरक व्यक्तित्व से हम सभी कुछ न कुछ सीख पाएँगे, विशेषरूप से किसी सृजनकार को प्रोत्साहित करना। 


कीर्तिशेष सुभाष चड्ढा का पार्थिव शरीर तो राख में तब्दील हो चुका है लेकिन उनकी  दास्तां अभी ज़ारी है ,

 बक़ौल मीर ' तक़ी ' मीर -

मर्ग इक माँदगी का वक़्फ़ा है 

यानी आगे चलेंगे दम ले  कर। 



प्रस्तुति - इन्दुकांत आंगिरस 


  


Sunday, August 28, 2022

एशिया जाग उठा - सरदार जाफ़री







 पुस्तक का नाम - एशिया जाग उठा     (  काव्य   संग्रह )


अक्सर  कवि अपने समय और काल की घटनाओं से  प्रभावित होते हैं  और अपनी  रचनाओं में  किस ना  किसी रूप में उन घटनाओं को दर्ज़ करते हैं।  इसके ज़रिये हमें उस काल और समय की आंशिक जानकारी मिलती है। उर्दू के प्रसिद्ध शाइर जनाब सरदार जाफ़री द्वारा रचित काव्य " एशिया जाग उठा " एक ऐसी ही दुर्लभ पुस्तक है।  पुस्तक में एशिया पर यूरोप और अमेरिका के खतरे को उजागर किया गया है और एशिया के पाँच हज़ार वर्ष पुराने इतिहास ,  संस्कृति और सभ्यता को काव्य रूप में ढालने की कोशिश है। शाइर अपनी भूमिका में लिखते हैं - 

" साम्राज का फूहड़ और सड़ा हुआ शरीर यूरोप और अमेरिका में फैला हुआ है लेकिन वह अपनी एड़ियाँ एशिया की ख़ाक पर रगड़ रहा है "

आज के सन्दर्भ में यह पुस्तक पूर्ण रूप से सार्थक न होते हुए भी महत्त्वपूर्ण  है। पुस्तक के आख़िरी  अंश में शाइर दुनिया के नक़्शे को भूल मानवता को कुछ यूँ परिभाषित करता है - 


"हमारे हाथों में हाथ दो सोवियत कम्युनिज्म की बहारों

हमारे हाथों में हाथ दो ए आवामी जम्हूरियत के हँसते हुए सितारों 

हमारे हाथों में हाथ दो यूरोप और अमेरिका के जवांबख्त कामगारों 


हम एक है एक हो गए है 

सियाह , पीले , सफ़ेद , भूरे 

हम एक फ़सलें  बहार के फूल , एक सूरज की रौशनी हैं

हम एक दुनिया के मुख़्तलिफ़ तार , इक समुन्दर के दिल की मौजें 

अलग - अलग फिर भी इक हैं , एक - एक धरती के रहने वाले 

हम एक धरती के बसने वाले हैं , एक इंसानियत के क़ायल 

न कोई पूरब है और न पच्छिम

ज़मीं  सूरज का आइना लेकर नाचती है 

हयात इंसां  के जीत के गीत गा रही है।  "


शाइर ने इस पुस्तक को कुछ यूँ समर्पित किया है " कृशनचंद्र की हसीन व जमील कहानियों  के नाम जो एशिया की जंगे आज़ादी के ख़ूबसूरत हथियार हैं। "


लेखक -  सरदार जाफ़री

प्रकाशक - प्रगति प्रकाशन , नई दिल्ली  

प्रकाशन वर्ष - प्रथम संस्करण , 1951

कॉपीराइट सरदार जाफ़री

 पृष्ठ - 40

मूल्य ( 1/ INR  (एक रुपया  केवल )

Binding -  Paperback 

Size - डिमाई 4 " x 6 "

 ISBN - Not Mentioned



प्रस्तुति - इन्दुकांत आंगिरस 


 


Sunday, August 14, 2022

वसंत का ठहाका - - अभी मैं प्यार हुआ नहीं हूँ

 

स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर मेरी एक ताज़ा कविता



अभी मैं प्यार हुआ नहीं हूँ


भारत से पहचान है मेरी

लेकिन मुझसे भारत की नहीं

क्योंकि मुझ पर हैं अभी बहुत मुलम्मे

और उन मुलम्मों की परतों में

मेरा अपना वजूद भी है लापता

मुझमें और मेरी पहचान में

अभी है दो जहां का फासला

अभी एक जानवर हूँ मैं

और जंगली है मेरा काफ़िला

 

 अभी, मैं बस्ती जलाने में लगा हूँ

मंदिर- मस्जिद बनाने में लगा हूँ

पुस्तकों को जलाने में लगा हूँ

संस्कारों को भुलाने  में लगा हूँ

अभी अपनी प्यास बुझाने को

नदियों को मिटाने में लगा हूँ

एक  दुनिया नई बसाने में लगा हूँ 

 

विस्फोट और ज़हर भरी दुनिया

एक अंधी और बहरी दुनिया

काग़ज़ी ख़ुश्बू से महकती दुनिया

बुझे चूल्हों पर उबलती  दुनिया

चंद सिक्कों पर खनकती दुनिया

मुखौटों में छिपी ठनकती दुनिया 

 

 अभी घर में रह कर बेघर हूँ मैं

अभी एक  जलता समुन्दर हूँ मैं

अभी इक शैतान से है मेरी यारी 

अभी रोती है , मेरी  माँ प्यारी 

 

अभी लाशों पर सोता हूँ मैं

अपनी लाश ख़ुद ढोता हूँ मैं

अभी रात है काली  बहुत

ज़िंदगी अभी गाली  बहुत

 

अभी रोज़ बिकता हूँ मैं

अभी रोज़ लिखता हूँ मैं

अख़बार समझ के पढ़ लेना

अभी मैं प्यार हुआ नहीं हूँ।



कवि - इन्दुकांत आंगिरस 


Sunday, August 7, 2022

संस्मरण : यादों के झरोखे से झाँकता "शब्द"

 

संस्मरण


यादों के झरोखे से झाँकता "शब्द"

 

- भूपेन्द्र कुमार

 

3 अक्तूबर 1995 की रात पीठ पर बड़ा सा झोला (बैक पैक) लादे हाथ में एक सूटकेस लिए सुदूर दक्षिण भारत के एक सर्वथा अनजान शहर – बेंगलूरू के रेलवे स्टेशन पर मेरा पहला कदम पड़ा तो सबसे पहली समस्या थी कि रात कहाँ ठहरूँ। दिल्ली में ही किसी ने बताया था कि रेलवे स्टेशन के पास ही एक ठीक-ठाक सा होटल है - स्वागत होटल, वहाँ ठहरा जा सकता है। अतः पूछता-पाछता वहीं जा पहुँचा और अगले दिन सुबह इसी प्रकार पता पूछ-पूछ कर अपने कार्यालय – "दि न्यू इंडिया एश्योरेंस" के बेंगलूरु क्षेत्रीय कार्यालय पहुँच गया जहाँ राजभाषा अधिकारी के पद पर नियुक्त होने के उपरांत दिल्ली से मेरा तबादला हुआ था।

 

बाद में कार्यालय के गेस्ट हाउस में रहने की व्यवस्था हो गई। धीरे-धीरे बेंगलूरु नगर और यहाँ के लोगों से परिचय होने लगा। यहाँ के सुहावने मौसम, यहाँ के बाग बगीचे, यहाँ की झीलें (जिन्हें यहाँ टैंक कहा जाता है), यहाँ की संस्कृति, यहाँ के संकरे एक मार्गीय रास्ते, यहाँ की भाषाई समस्या, यहाँ के कावेरी जल विवाद इत्यादि की समझ विकसित होती गई। संगीत और साहित्य में मेरी विशेष रुचि थी, अब भी है। मैंने गांधर्व महाविद्यालय से बाँसुरी की विधिवत शिक्षा ली थी और लेख, कहानियाँ, अनगढ़ कविताएँ व गीत भी लिखा करता था। पंजाब केसरी इत्यादि अखबारों में कहानियां, लेख व कविताएँ प्रकाशित भी हुई थीं। कालांतर में साहित्य सृजन केवल लेखों और काव्य तक ही सीमित हो गया। कहानी लेखन कहीं पीछे छूट गया। इसके पीछे एक बड़ा कारण यह भी था कि मेरी व्यक्तिगत रुचि शास्त्रीय संगीत में भी थी और बेंगलूरु आने से पूर्व नौकरी के साथ-साथ दिल्ली के गांधर्व महा विद्यालय से बाँसुरी वादन भी सीख रहा था। परिणामस्वरूप साहित्य सृजन को कम समय दे पाता था और कहानी लेखन अधिक समय की मांग करता है। अलबत्ता काव्य गोष्ठियों में आना-जाना बरकरार था और इस नाते काव्य सृजन भी यदाकदा हो जाता था। बेंगलूरू आने के बाद से ही मैं यहाँ पर भी किसी योग्य गुरू की तलाश में था ताकि दिल्ली में अधूरी छूट चुकी संगीत शिक्षा को आगे बढ़ा सकूँ। मेरी यह खोज शीघ्र ही पूरी हुई और यहाँ पर मैं श्री के.एस. राजेश जी से बाँसुरी सीखने लगा।

 

इस बीच मेरी मुलाकात "ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी" में कार्यरत राजभाषा अधिकारी वेद प्रकाश से हुई। वेद प्रकाश में साहित्य की समझ व भूख दोनों गजब की थीं। वेद प्रकाश बैंगलूरु के नंदिनी ले-आउट में ओरिंएंटल इंन्श्योरेंस के एक कंपनी फ्लैट में रहते थे। हमारी कंपनी के भी कुछ फ्लैट नंदिनी ले-आउट में थे। संयोग ऐसा हुआ कि मुझे भी नंदिनी ले-आउट में ही एक फ्लैट एलॉट हो गया। परिणाम यह हुआ कि अभी तक जो मुलाकातें केवल कार्यालयीन कार्यों के सिलसिले तक सीमित थीं अब लगभग प्रत्येक शनिवार व रविवार को साहित्यिक चर्चाओं पर भी केंद्रित होने लगीं। बेंगलूरु में अधिकांश साहित्यिक या सांस्कृतिक कार्यक्रम कन्नड़ में ही हुआ करते थे। अतः हममें से किसी को भी बेंगलूरु में किसी हिंदी साहित्यिक गतिविधि का पता चलता तो हम दोनों ही वहाँ अवश्य पहुंचते। शीघ्र ही हमें यह एहसास हो गया कि बेंगलूरू में हिंदी साहित्य से जुड़े लोग एक दूसरे से परिचित नहीं हैं और हिंदी साहित्य की स्तरीय गतिविधियों का प्रायः अभाव है। हिंदी समूहों में वहाँ मारवाड़ी समुदाय के कुछ संगठन थे जो अधिकांश धार्मिक व कुछ साहित्यिक कार्यक्रम आयोजित करते थे या उत्तर प्रदेश के लोगों का एक संघ जिसके अंतर्गत होली मिलन इत्यादि सामाजिक समरसता के कुछ कार्यक्रम आयोजित किये जाते थे। बेंगलूरु से एक मात्र राष्ट्रीय हिंदी अख़बार "राजस्थान पत्रिका" कुछ समय पूर्व ही निकलना आरंभ हुआ था। इससे पूर्व जो राष्ट्रीय अख़बार उपलब्ध होते थे उनमें नवभारत टाइम्स या दैनिक हिंदुस्तान दिखाई देते थे जो अतिरिक्त शुल्क के साथ एक दिन बाद उपलब्ध होते थे।

ऐसे में हम दोनों ही किसी ऐसी हिंदी साहित्यिक संस्था के गठन की आवश्यकता शिद्दत से महसूस कर रहे थे जिसमें स्थानीय हिंदी भाषियों के साथ-साथ सरकारी कार्यालयों में कार्यरत हम जैसे साहित्यानुरागी कार्मिक तथा ऐसे कन्नड़ भाषी भी शामिल हों जो हिंदी साहित्य में रुचि रखते हों। वेद  प्रकाश की रुचि गद्य लिखने पढ़ने में अधिक थी तो मेरी काव्य में, यद्यपि मैं कथा मासिक "हंस" का भी नियमित पाठक था और कहानियों तथा विभिन्न आलेखों के साथ-साथ राजेंद्र यादय के संपादकीय को भी चाव से पढ़ा करता था जिससे मुझे मार्क्सवाद, दलितलेखन व महिला साहित्यलेखन का कुछ-कुछ परिचय मिलता रहता था। वेद प्रकाश का झुकाव मार्क्सवाद व अंबेडकरवाद की ओर था तो मैं अभी इन आंदोलनों को समझने की कोशिश कर रहा था और साहित्य सृजन में एक संवेदनशील मानवतावादी दृष्टिकोण ही अपनाता था। वेद प्रकाश को दिल्ली में रहते हुए विश्वविद्यालय में समसामयिक विषयों पर लंबी-लंबी बहसों में शामिल होने का अनुभव था तो मुझे दिल्ली में रहते हुए परिचय साहित्य परिषद और हलक़ा--तश्नगाने अदब की काव्यगोष्ठियों में शामिल होने का अनुभव था। इसलिए वेद प्रकाश के मन में एक साहित्यिक संस्था का जो चित्र था उसमें सामयिक विषयों पर चर्चा परिचर्चा केंद्र में थी, लेकिन मेरा मानना था चर्चा परिचर्चा वाली गोष्ठी में अधिक लोग नहीं जुड़ पाएंगे अतः आरंभ काव्य गोष्ठियों से ही किया जाए बाद में उसमें सामयिक विषयों पर परिचर्चा को जोड़ा जा सकता है।

 

इसी बीच वेद प्रकाश की मुलाकात संजय प्रकाश जी से हुई जो राजस्थान पत्रिका में उप संपादक या ऐसे ही किसी पद पर कार्यरत थे। उनके मन में भी बेंगलूर के हिंदी साहित्यानुरागियों को एकजुट करने की इच्छा थी। संजय प्रकाश जी के पास लोगों से जुड़ने और उन्हें अपने साथ जोड़ने की अद्भुत कला थी। वेद प्रकाश के माध्यम से मेरा भी उन से परिचय हुआ। संजय प्रकाश जी राजस्थान पत्रिका की अपनी नौकरी से संतुष्ट नहीं थे या प्रबंधन से उनकी अनबन चल रही थी जो भी कारण रहा हो, कालांतर में उन्होंने राजस्थान पत्रिका की वह नौकरी छोड़ दी। राजभाषा अधिकारी होने के नाते भारत सरकार के विभिन्न उपक्रमों में कार्यरत विभिन्न हिंदी अधिकारियों तक हमारी पहुँच सुलभ थी। उनमें से जिसका भी रुझान हिंदी साहित्य की ओर होता उससे शीघ्र ही हमारी निकटता स्थापित हो  जाती। ऐसे ही एक उत्साही हिंदी अधिकारी थे निहाल हाशमी जो लखनऊ से थे और अब लंबे समय से बेंगलूरू में इंडियन टेलिफोन इंडस्ट्रीज़ (आईटीआई) में कार्यरत थे, जिसका अब संभवतः निजीकरण हो चुका है। उनका पैत्रिक माहौल तो उर्दू साहित्य का था, लेकिन उन्होंने हिंदी साहित्य को चुना और हिंदी में ही एम.. भी किया और हिंदी में ही साहित्य रचना करते थे। उनकी पत्नी बंगाल से थीं और हिंदू थीं, इसलिए उनके घर में बांग्ला का भी माहौल था। वे भी अच्छी बांग्ला बोलते थे और उनके घर में मुस्लिम व हिंदू दोनों तरह के त्यौहार मनाए जाते थे। संजय प्रकाश भी निहाल हाशमी से परिचित थे।

 

एक दिन संजय प्रकाश जी ने जैन समाज के तेरापंथ समुदाय द्वारा आयोजित एक हिंदी के कार्यक्रम की सूचना दी जो संभवतः शनिवार या रविवार को था। अतः मैं और वेद प्रकाश वहाँ नियत समय पर पहुँच गए। उस कार्यक्रम में संजय प्रकाश और निहाल हाशमी भी पहुँचे। उस कार्यक्रम के सूत्रधार थे डॉ. मनोहर भारती। कार्यक्रम की समाप्ति पर संजय प्रकाश जी ने हम तीनों का परिचय सरोजा व्यास जी से करवाया। सरोजा जी कर्नाटक महिला हिंदी सेवा समिति में अध्यापन का कार्य करती थीं और साहित्य सृजन भी करती थीं, मुख्य रूप से काव्य रचना। वे उस कार्यक्रम स्थल तक अपनी स्कूटी ख़ुद चलाकर आई थीं। कालांतर में पता चला कि उनका जीवन काफी संघर्षपूर्ण रहा था। वह अपने पति की दूसरी पत्नी थीं (पहली पत्नी के निधन के कारण) जो आयु में उनसे काफी बड़े थे। उनका भी असमय निधन हो गया। तमाम वर्जनाओं से युक्त मारवाड़ी समाज में उन्होंने अपना शेष जीवन आत्मनिर्भर होकर व्यतीत किया। इस समय तक उनका बेटा एक व्यवसाय में स्थापित हो चुका था। वे स्वयं भी लड़कियों के लिए एक पेइंग गैस्ट सुविधा का संचालन करती थीं। अतः आर्थिक रूप से सक्षम हो चुकी थीं।

 

हम पाँचों लोग कार्यक्रम के बाद एक कोने में खड़े होकर साहित्य चर्चा करते रहे। फिर किसी ने सुझाव दिया कि यहाँ खड़े होकर चर्चा करने से अच्छा है चाय पीते हुए किसी चाय की दुकान पर चर्चा की जाए। एक चाय की दुकान में  गए मगर चर्चा का उपयुक्त माहौल नहीं मिला अतः सरोजा जी ने आग्रह किया कि हम सब उनके घर चलें और वहीं पर चर्चा करें उनका घर वहाँ से ज़्यादा दूर नहीं था, यह कार्यक्रम मैजेस्टिक के आस पास कहीं था और उनका घर राजाजी नगर में। संजय प्रकाश जी ने उनका घर देखा हुआ था। अतः हम चारों लोग उनके आवास पर पहुँच गए। वहाँ पर हिंदी साहित्य को समर्पित एक संस्था बनाने पर विचार हुआ। पाँचों एक संस्था के गठन पर सहमत हुए और यह तय हुआ कि पंद्रह दिन बाद हम पुनः मिलेंगे और तब तक प्रत्येक व्यक्ति संस्था के नाम तथा उद्देश्यों के विषय में विचार करेगा और बैठक में चर्चा करके उन्हें अंतिम रूप दिया जाएगा। शायद यह जून 1997 के अंतिम सप्ताह का कोई दिन था। और आगामी बैठक 13 जुलाई 1997 की तय की गई।

 

13 जुलाई को नियत समय पर चारों लोग सरोजा जी के आवास पर पहुँचे। संस्था के उद्देश्य व प्रारूप आदि पर गहन मंथन हुआ। यह विचार आया कि सर्वप्रथम एक स्थान की खोज की जाए जहाँ संस्था की गतिविधियाँ नियमित रूप से चल सकें। फिर उसके लिए वित्त की व्यवस्था कैसे की जाए। मैं इन दोनों विचारों के प्रति पूर्वाग्रहग्रस्त था, क्योंकि मैंने अनेक ऐसी संस्थाओं को नज़दीक से देखा था जो एक स्थान से संचालित होती थीं और कुछ लोगों की निजी संपत्ति की तरह संचालित होकर रह गयीं या जहाँ वित्त का लेनदेन शामिल हुआ या किसी प्रकार के कोश की स्थापना हुई तो झगड़े फसाद में पड़कर संस्थाएँ कालकवलित हो गईं। मेरे दिमाग में दिल्ली की उर्दू साहित्य की एक संस्था "हलक़ा--तश्नगाने अदब" थी, जो कई वर्षों से सफलता पूर्वक चल रही थी और उसमें झगड़े फसाद का लेश मात्र भी देखने में नहीं आया था। इस संस्था के पास अपना कोई एक ठिकाना भी नहीं था और अपना कोई कोश भी नहीं था। यह लोगों के घरों में नशिस्तों (गोष्ठियों) का आयोजन करती थी। जिसके घर में गोष्ठी होती थी वह स्वेच्छा पूर्वक अपनी हैसियत के हिसाब से आगंतुकों को चाय नाश्ता करवा देता था। साल में एक बार वार्षिक कार्यक्रम होता था जिसके लिए कोश उसी समय जुटाया जाता और सारा कोश खर्च कर दिया जाता। कोई स्मारिका निकाली जाती तो सहयोग राशि उसी समय ले ली जाती। अर्थात जमा पूंजी कुछ भी नहीं रखी जाती थी। मैंने इसी मॉडल की वकालत की। शेष चारों को भी यह विचार पसंद आया और इस पर सबकी सहमति बन गई। लेकिन फिर भी पत्राचार के लिए एक पते की आवश्यकता महसूस की गई। इसके लिए सरोजा जी ने अपने आवासीय पते का प्रयोग करने की सहर्ष अनुमति प्रदान कर दी। निहाल हाशमी जी ने सर्वसम्मति से इसका अध्यक्ष होना स्वीकार किया। बाद के वर्षों में सरोजा व्यास जी ने यह पद संभाला।

 

इसके बाद नाम को लेकर विचार विमर्श हुआ। अनेक नामों पर विचार हुआ, पता चलता कि अमुक नाम की संस्था तो पहले ही चल रही है। उन दिनों इंटरनेट और गूगल सर्च की आज जैसी व्यवस्था तो थी नहीं। हम पाँच लोगों ने जिन-जिन नामों की संस्थाओं के बारे में सुना हुआ था, कम से कम उस नाम को तो न दोहराया जाए यही विचार था। अतः बहुत से नाम सूची से बाहर हो गए। मैंने अनेक अन्य नामों के साथ अक्षर, अक्षरा, व शब्द का सुझाव दिया था। अन्य नामों के साथ अक्षर व अक्षरा भी इसलिए सूची से बाहर हो गए कि इन नामों की संस्था पहले से ही दिल्ली, बेंगलूरु या लखनऊ में मौजूद है। अंत में "शब्द" बचा इस पर काफी चर्चा हुई इसके साथ कई उपसर्ग, प्रत्यय व समास लगाकर कोई अन्य नाम बनाने पर भी विचार हुआ पर कुछ जमा नहीं। अंततः शब्द – साहित्यिक संस्था, बेंगलूरु, इस  पर सहमति बनी। भारतीय वांगमय में शब्द को ब्रह्म कहा गया है। शब्द का स्थान आकाश माना गया है, जो उसके व्यापकत्व का बोध कराता है। शब्द वाक्य का आधार है। शब्द संवेदना का वाहक है, शब्द अभिव्यक्ति का माध्यम है। शब्द मानव को मानव से जोड़ता है। ऐसी अनेक विशेषताओं से युक्त शब्द – "शब्द" के नाम से बेंगलूरु की इस साहित्यिक संस्था का गठन किया गया जो आज अपनी स्थापना के 25 वर्ष बाद भी बेंगलूरु में लोकप्रियता के शिखर पर है।

 

इसके उद्देश्यों के बारे में भी कुछ बातें रेखांकित की गईं। जैसे कि यह संस्था हिंदी के साथ-साथ कन्नड़ एवं  अन्य भारतीय भाषाओं के ऐसे साहित्यकारों को भी साथ लेकर चलेगी जो हिंदी जानते समझते हैं और अनुवाद इत्यादि के माध्यम से हिंदी साहित्य के संवर्धन में अपना योगदान दे सकते हैं। इस संस्था के अंतर्गत पाक्षिक गोष्ठियों का आयोजन किया जाएगा, जिसमें काव्य गोष्ठियों के साथ-साथ सामयिक विषयों पर चर्चा परिचर्चा का भी आयोजन किया जाएगा। वर्ष में एक बार विशेष कार्यक्रम का आयोजन किया  जाएगा जिसमें  किसी एक साहित्यिक व सामाजिक विषय पर संगोष्ठी, साहित्यकारों का सम्मान व कवि सम्मेलन इत्यादि गतिविधियाँ शामिल होंगी। एक नियमित अंतराल पर पत्रिका का प्रकाशन भी किया जाएगा, जिसमें नवोदित रचनाकारों को भी स्थान दिया जाएगा तथा कन्नड़ व अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य को भी हिंदी लिप्यंतरण व अनुवाद के साथ शामिल किया जाएगा। इन सब बातों को एक  रजिस्टर में अंकित किया गया जिसपर पाँचों संस्थापक सदस्यों ने हस्ताक्षर किए। संभवतः वह रजिस्टर अभी भी संस्था के पास सुरक्षित होगा।

 

फिर पाक्षिक गोष्ठियों का आयोजन आरंभ हो गया। पहली गोष्ठी सरोजा जी के आवास पर ही हुई बाद में मेरे, वेद प्रकाश के व निहाल हाशमी जी के आवास पर गोष्ठियों का आयोजन हुआ। अनेक गोष्ठियों में तो यह स्थिति रही कि केवल हम संस्थापक सदस्य ही उपस्थित होते, उनमें भी कभी-कभी किसी की अन्य कोई व्यस्तता होती तो न आ पाता। बाद में जब कुछ अन्य लोग जुड़ गए तब भी स्थिति यह होती कि चार पाँच लोग ही मौजूद होते, लोकिन हम बाकायदा गोष्ठियों का आयोजन करते। कभी-कभी थोड़ी बहुत मानसिक तकलीफ होती कि साहित्य के प्रति  लोगों में कितनी उदासीनता है, मगर हममें से कोई भी कभी भी हताश नहीं हुआ। हाँ, इतना ज़रूर हुआ कि "पाक्षिक" के स्थान पर गोष्ठियों का आयोजन "मासिक" होने लगा। संचालन की जिम्मेदारी शुरू-शुरू में हम पाँचों लोग बारी-बारी से उठाया करते, विशेषकर निहाल हाशमी जी, मैं स्वयं और वेद प्रकाश, लेकिन बाद में यह जिम्मेदारी स्थायी रूप से मुझ पर ही आकर स्थिर हो गई। हमने काव्य गोष्ठियों के साथ-साथ विचार गोष्ठियों का क्रम भी आरंभ कर दिया था। कभी काव्य गोष्ठी आरंभ होने से पूर्व विचार गोष्ठी होती तो कभी काव्य गोष्ठी के बाद। कभी-कभी विचार विमर्श के क्रम में बहस इतनी गर्मागर्म हो उठती कि लगता कहीं विचारों में मतभेद के कारण मनभेद न उत्पन्न हो जाय। पर थोड़ी बहुत ऊँच नीच के साथ सबकुछ ठीक-ठाक चलता रहा।

 

हम  सभी ने इस संस्था को आगे बढ़ाने में जी-तोड़ मेहनत की। धीरे-धीरे यह मेहनत रंग लाई जिससे संस्था की लोकप्रियता बढ़ती गई और "काफिले जुड़ते गए कारवाँ बढ़ता गया" की तर्ज़ पर इस संस्था से भी लोग जुड़ते चले गए और शब्द का कारवाँ आगे बढ़ता गया। कुछ नाम जो मुझे याद आते हैं इस प्रकार हैं - भारतीय वैमानिकी विकास संस्थान के वैज्ञानिक एवं नगर के वरिष्ठ साहित्यकार राकी गुप्ता (राम किशोर गुप्ता), इसी संस्थान में कार्यरत दिलीप कुमार पाठक, केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो के सहायक निदेशक ईश्वर चंद्र मिश्र, इसी संस्थान के संयुक्त निदेशक श्रीनारायण सिंह समीर जो बाद में दिल्ली स्थित मुख्यालय में संस्थान के निदेशक भी हुए, बेंगलूरु विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष टीजी प्रभाशंकर प्रेमी, बेंगलूरू के पुलिस उपायुक्त अजय कुमार सिंह, केंद्रीय हिंदी प्रशिक्षण संस्थान के प्राध्यापक कोमल सिंह, श्रीकांत नारायण दैवज्ञ, केंद्रीय विद्यालय की प्राध्यापिका तृप्ति मजूमदार, स्व व्यवसायी स्मिता प्रेमचंद, गृहणी इंदुबाला सोनी, बेंगलूरु विश्व विद्यालय के शोधार्थी बुधिराम पाल, अभिनव शुक्ल, आदित्य शुक्ल, विनय नोक, स्व-व्यवसायी वेद प्रकाश पांडेय, संतोष पांडेय (बाद में पत्रकार होकर राजस्थान पत्रिका के कोयंबत्तूर नगर के प्रभारी भी रहे), वरिष्ठ साहित्यकार पीसी मानव, डॉ. एन.के. सोनी (जो बाद में संस्था के उपाध्यक्ष चुने गए), उर्दू के वरिष्ठ साहित्यकार तिलकराज सेठ तलब,  स्व-व्यवसायी घनश्याम तिवारी, एचएमटी के उप महा प्रबंधक राजेश्वर सिंह, कुदरेमुख आयरन ओर के वरिष्ठ प्रबंधक डॉ. मंगल प्रसाद, तमिल भाषी बैंक कर्मी टीआर वरदराजन, आई.आई.एम. बेंगलूरु में कार्यरत कन्नड़ भाषी नागभूषण ए नाविक, (ये दोनों ही अपनी-अपनी रचनाओं के हिंदी अनुवाद भी स्वयं ही किया करते थे), कन्नड़ और अंग्रेज़ी के वरिष्ठ साहित्यकार तथा स्व-व्यवसायी द्वारकानाथ एच कबाडी। इसके अलावा कई ऐसे साहित्यकार हैं जिनके चेहरे मेरी आँखों के आगे घूम रहे हैं पर नाम याद नहीं आ रहा। ऐसे ही एक उर्दू के कवि हैं जो यूनानी दवाख़ाने से संबंधित भारत सरकार के शोध संस्थान में कार्यरत थे और अपने मधुर कंठ से सरल उर्दू में लिखी अपनी गज़ल व नज़्म सुनाया करते थे। इनमें से कोई भी पूर्णकालिक साहित्यकार या यों कहें कि पेशेवर साहित्यकार नहीं था, सभी अपने-अपने सरकारी या ग़ैर सरकारी व्यावसायिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए हिंदी, उर्दू अथवा कन्नड़ रचनाकर्म में लगे थे। "शब्द" ने इन सबको एक ऐसा मंच प्रदान किया था जिससे एक ओर नए रचनाकारों की प्रतिभा विकसित हो रही थी तो दूसरी ओर स्थापित रचनाकारों की ख्याति बढ़ रही थी और सबसे बड़ी बात यह कि अब तक परस्पर अपरिचित ये सब साहित्यकार एक दूसरे के नज़दीक आ रहे थे। श्रीनारायण सिंह जी भी अपना मार्गदर्शन समय-समय पर दिया करते थे। एक नवनिर्मित साहित्यिक संस्था के रूप में "शब्द" की यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी।

 

शब्द संस्था के उद्देश्यों में से एक उद्देश्य पत्रिका का प्राकशन किया जाना भी था। पत्रिका के प्रकाशन में काफी समस्याएँ थीं। सबसे बड़ी समस्या तो धनराशि की थी। यद्यपि कुछ लोग इसका पूरा खर्च वहन  करने के लिेए तैयार थे। मगर वेद प्रकाश और मैं इस विचार से सहमत नहीं थे। हमारा मानना था कि पत्रिका सामूहिक प्रयास से छपनी चाहिए, तभी वह शब्द की पत्रिका होगी अन्यथा व्यक्ति विशेष की या व्यवसाय विशेष की पत्रिका हो जाएगी और हमें अपनी विचारधारा से और साहित्य के स्तर से समझौता करना पड़ेगा। दूसरी समस्या थी कि उसमें छापा क्या जाए। कुछ लोगों का विचार था कि गोष्ठियों में पढ़ी गई रचनाओं को छापा जाए, कुछ लोग इसे एक स्मारिका के रूप में निकालना चाहते थे। तीसरी समस्या थी इसकी जिम्मेदारी कौन ले और चौथी समस्या थी कि इसका नाम क्या हो और क्या इसे पंजीकृत करवाया जाए। डाक खर्च में छूट कैसे प्राप्त की जाए इत्यादि। इन सब मुद्दों पर गहन विचार विमर्श हुआ। संजय प्रकाश जी ने बताया कि उनके पास दो पंजीकरण हैं और अर्थाभाव के कारण वे उन्हें प्रकाशित नहीं कर पा रहे। वे उनमें से एक नाम शब्द को समर्पित कर सकते हैं। सबको यह विचार पसंद आया कि नए पंजीकरण के पचड़े में पड़ने से अच्छा है कि पुराने नाम से ही काम चलाया जाए। उनके पास जो दो नाम थे उनमें से एक नाम था - "हरी धरती नीला आकाश" पत्रिका की दृष्टि से यही नाम कुछ जंचा, क्योंकि इसमें एक ओर धरती से जुड़ाव का एहसास था तो दूसरी ओर कल्पनाकाश के व्यापकत्व का भाव भी समाहित था जो किसी भी साहित्य सृजन को एक उर्वर भूमि प्रदान करने में सक्षम है। दूसरा नाम शायद "जनप्रिय भारत वार्ता" था जो किसी अख़वार का नाम ही प्रतीत होता था। बाद में एक साप्ताहिक या पाक्षिक समाचार पत्र के रूप में संजय प्रकाश जी ने सरोजा जी के साथ मिलकर इसका प्रकाशन भी किया था। अस्तु, हरी धरती नीला आकाश के संपादन की जिम्मेदारी मुझ पर डाल दी गई। मेरे पास सह्याद्रि नामक अपनी कंपनी की गृह पत्रिका का संपादन करने का अनुभव तो था, पर एक साहित्यिक पत्रिका का संपादन करने का यह पहला अवसर था। दोनों के संपादन कार्य में जो समानता थी वह यह कि गृह पत्रिका के लिए रचनाओं को जुटाने से लेकर संपादन, प्रकाशन, डिज़ाइनिंग व प्रूफ रीडिंग इत्यादि सभी काम एक दो लोगों की टीम के भरोसे ही चलते थे, जिसमें मुख्य रूप से संपादक की ही जिम्मेदारी होती थी और यहाँ भी यही स्थिति थी। फर्क यह था कि वहाँ वित्त की चिंता नहीं थी इसलिए पत्रिका का कलेवर अत्यंत आकर्षक होता था, मगर यहाँ तो वित्त का इंतज़ाम करना ही सबसे बड़ी मुश्किल थी। पत्रिका के स्वरूप की रूपरेखा मैंने और वेद प्रकाश ने मिल कर तय की जिसे अन्य तीन संस्थापक सदस्यों ने भी अपनी स्वीकृति दी। धनराशि के लिए कुछ राशि चंदे से तो कुछ विज्ञापन से जुटाने का निश्चय किया गया। यद्यपि इन दोनों में ही हमें कुछ अधिक सफलता नहीं मिली। विज्ञापन के नाम पर हमें एक अदद विज्ञापन ही मिला और चंदे से भी कुछ अधिक राशि नहीं जुट पाई। एक बड़ी राशि सरोजा जी ने प्रदान की। जो शेष रकम बची थी उसके लिए कोई सामने नहीं आया। हमने इसके लिए अधिक प्रयास किया भी नहीं। साहित्यकर्म को अपने केंद्र में रखने वाले अर्थ तंत्र में वैसे ही कमज़ोर हुआ करते हैं। अंततः वह शेष राशि मैंने और वेद प्रकाश ने मिल कर वहन की।

 

पत्रिका के उद्देश्य और स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए मैं अपने संपादकीय से कुछ अंश उद्धृत करना चाहूँगा।

 

“......शब्द संस्था का एक वर्ष पूरा होने पर कुछ लोगों की ओर से यह सुझाव आया कि एक संकलन प्रकाशित किया जाए जिसमें शब्द की गोष्ठियों में भाग लेने वाले रचनाकारों की रचनाएँ प्रकाशित की जाएँ। बाद में यह विचार बदलते बदलते पत्रिका के वर्तमान स्वरूप पर स्थिर हुआ जिसमें शब्द संस्था से जुड़े रचनाकारों के अतिरिक्त अन्य रचनाकारों की भी सभी विधाओं में रचनाएँ शामिल हैं। ..... पत्रिकाओं के इस महासमुद्र में एक नयी पत्रिका की क्या आवश्यकता है? क्यों नहीं हम और इस पत्रिका के सभी संभावित रचनाकार वर्तमान पत्रिकाओं में ही अपनी रचनाएँ भेजकर संतुष्ट हो जाते? यह पत्रिका अन्य पत्रिकाओं से कैसे अलग होगी? इस प्रकार के अनेक प्रश्न बार-बार हमारे सामने आए जिनके कारण न केवल इस पत्रिका के प्रकाशन में विलंब हुआ अपितु इस पत्रिका का स्वरूप भी स्थिर हुआ। .......लघु पत्रिकाओं की आयु चाहे कम हो मगर वो अपने आप में एक आंदोलन होती हैं। इनका पाठक वर्ग चाहे सीमित हो, पर गंभीर होता है। एक क्षेत्र की अपनी पत्रिका होने के कारण पाठकों के इस सीमित वर्ग का स्नेह इसे प्राप्त होता है और पत्रिका पढ़ने के लिए ली जाती है, एक स्टेटस सिंबल के रूप में नहीं। .....यह पत्रिका जहाँ से निकल रही है वह मूलतः एक गैर-हिंदी भाषी क्षेत्र है, यद्यपि यहाँ हिंदी जानने वालों की भी कमी नहीं है। हिंदी जानने वाले यहाँ दो तरह के लोग हैँ। एक वे जिनकी मातृभाषा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र इत्यादि प्रदेशों में बोली जाने वाली भाषाओं में से कोई एक है। दूसरी तरह के लोग वो हैं जिनकी मातृभाषा कन्नड़, तमिल, तेलगू, मलयालम इत्यादि है, मगर उन्होंने यत्नपूर्वक हिंदी सीखी है। यह जो दूसरा वर्ग है, हो सकता है कि उसकी हिंदी बहुत अच्छी न हो, मगर उसे देवनागरी लिपि आती है। इस परिप्रेक्ष्य में हमारा मानना है कि देवनागरी लिपि सभी भारतीय भाषाओं को एक दूसरे के नज़दीक लाने में सेतु का काम कर सकती है। .....इस पत्रिका में हम मुख्यतः दक्षिण भारतीय भाषाओं को लेकर ही चलेंगे। इस विषय पर इस पत्रिका के एक आधार स्तंभ वेद प्रकाश ने एक आलेख तैयार किया है - "देवनागरी लिपि हम सबकी लिपि" जिसे हम इस अंक में प्रकाशित भी कर रहे हैं। संक्षेप में इतना ही कि इस पत्रिका में आपको मूल हिंदी रचनाओँ के अतिरिक्त देवनागरी लिपि में मूल कन्नड़, तेलुगु, तमिल व मलयालम इत्यादि भाषाओें की रचनाएँ पढ़ने को मिलेंगी और साथ-साथ उनका हिंदी अनुवाद भी पढ़ने को मिलेगा। यह पत्रिका अन्य पत्रिकाओं से यहीं पर अलग होगी। दक्षिण भारतीय भाषाओं के साहित्य का हिंदी अनुवाद तो अनेक पत्रिकाओं में छप रहा है, पर देवनागरी लिपि में उनका मूल पाठ दुर्लभ है। साथ ही बेगलूरु की लघु पत्रिका होने के नाते इस क्षेत्र के हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के रचनाकारों को प्रोत्साहन देने का कार्य भी यह पत्रिका करेगी।.....” अन्य भाषाओं के लिए भी एक संपादक मंडल तैयार किया गया जिसमें कन्नड़ के लिए डॉ. टीजी प्रभाशंकर प्रेमी, तेलुगु के लिए वी. हर्षवर्धन तथा मलयालम के लिए पी. मुरलीधरन पिल्लै का चयन किया गया।

 

इस बीच संजय प्रकाश जी ने  सरोजा व्यास जी एवं कुछ अन्य सहयोगियों के साथ एक अन्य संस्था हिंदी महासभा की स्थापना की। इस सभा के त्तत्वावधान में नगर के टाउन हॉल में एक भव्य कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। जिसमें शब्द के वरिष्ठ कवि राकी गुप्ता एवं कुछ अन्य साहित्यकारों का भी सम्मान किया गया। कार्यक्रम में नगर के लब्ध प्रतिष्ठित व्यक्ति विशिष्ट अतिथि व मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे। स्थानीय कवियों के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर के कुछ कवि भी आमंत्रित थें जिनमें प्रमुख थे हिंदी मिश्रित राजस्थानी में कविता सुनाने वाले लोकप्रिय कवि सुरेन्द्र शर्मा। यह कार्यक्रम निशुल्क नहीं था इसमें शामिल होने के लिए बाकायदा टिकिटों का विक्रय किया गया था। इसके बावजूद टाउन हॉल जैसा बड़ा हॉल खचाखच भरा हुआ था. यहाँ तक कि कुछ लोगों को  बैठने तक का स्थान नसीब नहीं हुआ था। जहाँ तक मुझे याद आता है, इसी कार्यक्रम में हरी धरती नीला आकाश का लोकार्पण करना भी तय हुआ था।

 

मुझे आज भी याद है कि रचनाओं को इक्टठा करने, उन्हें कंपोज़ करवाने, प्रूफ पढ़ने इत्यादि कार्यों में कैसे दिन-रात एक कर दिए थे। सम्मेलन की तारीख निज़दीक आ रही थी और पत्रिका का अभी बहुत-सा कार्य बचा हुआ था। जिस दिन पत्रिका को अंतिम रूप दिया जा रहा था, उस दिन मैंने तय किया कि कंपोज़र के आवास पर स्वयं जाकर कंपोज़र के साथ बैठ कर अंतिम रूप दिया जाए, क्योंकि प्रूफ में गलतियाँ बहुत आ रही थीं, बहुत-सी सामग्री अभी कंपोज़ ही नहीं की गई थी। सैटिंग की समस्या भी थी। उस दिन दोपहर को कार्य आरंभ किया। मुझे उम्मीद थी कि देर शाम तक काम निपट जाएगा। मगर रात के दस बज गए, अभी भी बहुत सा काम बचा हुआ था। मैने घर पर फोन कर दिया कि खाने पर इंतज़ार मत करना मैं यहीं खा लूंगा और रात को देर हो जाएगी। मगर देर की भी कोई सीमा थी, सारी रात कंप्यूटर के आगे बैठे कट गई। सुबह के पाँच बज गए, तब कहीं जा कर काम निपटा। जब इस तरह नींद से लड़ते हुए पत्रिका को अंतिम रूप दिया हो तो ज़ाहिर है कुछ न कुछ त्रुटियाँ रह ही गई होंगी। लेकिन इस बात का संतोष था कि अंततः तय सीमा में कार्य संपन्न हो गया। पत्रिका समय पर छप कर आ गई। उसका तय कार्यक्रम में लोकार्पण हुआ। पत्रिका का मूल्य रखा गया 20 रुपये मात्र। लेकिन प्रायः इसका वितरण निःशुल्क ही किया गया। यह बात फरवरी-मार्च 1999 की है।

 

गोष्ठियों का क्रम यथावत जारी था। संजय प्रकाश जी और सरोजा जी कतिपय कारणों से शब्द की बजाए हिंदी महा सभा में अधिक केंद्रित हो रहे थे। वेद प्रकाश भी कुछ सैद्धांतिक मतभेदों के कारण शब्द की ओर अधिक ध्यान नहीं दे रहे थे। व्यावहारिक रूप से शब्द का दारोमदार मुझपर व निहाल हाशमी जी पर आ पड़ा, यद्यपि हमें डॉ. एनके सोनी ईश्वर चंद्र मिश्र इत्यादि अनेक सुधी जनों का सक्रिय सहयोग प्राप्त था। इसी दौरान डॉ. एनके सोनी का एक नया काव्य संकलन प्रकाशित हुआ जिसका लोकार्पण समारोह शब्द संस्था द्वारा आयोजित किया गया जो अत्यंत सफल व चर्चित रहा। इसी के चलते शब्द के बैनर तले एक बड़े कार्यक्रम के आयोजन की मांग भी उठने लगी, जिसे वार्षिक कार्यक्रम भी कह सकते हैं। यह अलग बात है कि शब्द को स्थापित हुए दो वर्ष से अधिक हो चुके थे। पुनः वही सवाल मुंह बाए  खड़े हो गए कि कार्यक्रम का स्वरूप क्या हो, कार्यक्रम कहाँ आयोजित किया जाए, वित्त की व्यवस्था कैसे की जाए, इत्यादि। इन बातों पर विचार करते-करते वर्ष 2000 आ गया। इस साल के शुरुआत में ही, संभवतः फरवरी या मार्च में वेद प्रकाश का दिल्ली स्थानांतरण हो गया। निहाल हाशमी जी के कार्यालय व आवास की दूरी मेरे कार्यालय व आवास दोनों से ही बहुत अधिक थी। अतः उनसे मुलाक़ात बहुत कम हो पाती थी। पारिवारिक व्यस्तताओं के चलते वे शब्द की गोष्ठियों में भी अनियमित हो गए थे। संजय प्रकाश जी व सरोजा जी का तो काफी समय से शब्द की गोष्ठियों में आना बंद-सा था। ऐसे में एक समय में शब्द के संस्थापक सदस्यों की दृष्टि से मैं स्वयं को नितांत एकाकी महसूस कर रहा था। लेकिन शब्द के अन्य सदस्यों व शुभचिंतकों का मेरे प्रति व संस्था के प्रति स्नेह ऐसा था जो मुझे उत्साह भी देता था और शब्द के साथ बांध कर भी रखे हुए था।

 

वर्ष 2001 में प्रायोगिक तौर पर हमने कुछ गोष्ठियों का आयोजन खुले में सैंट्रल लाइब्रेरी के निकट कब्बन पार्क में करना आरंभ कर दिया। ऐसी ही एक गोष्ठी के बाद एक विशेष बैठक का आयोजन किया गया जिसमें निहाल हाशमी भी उपस्थित थे व शब्द में नियमित सक्रिय सहयोग करने वाले ईश्वर चंद्र मिश्र, श्रीकांत नारायण दैवज्ञ व शब्द के उपाध्यक्ष डॉ. एनके सोनी भी उपस्थित थे। इस बैठक में शब्द के बड़े कार्यक्रम की रूपरेखा तय की गई। तय यह किया गया कि प्रेमचंद जयंती के आस-पास जुलाई महीने में एक कार्यक्रम आयोजित किया जाए क्योंकि शब्द की स्थापना भी जुलाई महीने में ही हुई थी। कैसा संयोग है कि 13 जुलाई को शब्द की स्थापना हुई थी और 13 को दाएं-बाएं उलट दीजिए तो जो अंक आता है उस दिन अर्थात 31 जुलाई को प्रेमचंद जयंती होती है। अतः यह विचार सब को बहुत पसंद आया और कार्यक्रम को प्रेमचंद पर ही केंद्रित रखने का भी निश्चय किया गया।

 

इसके बाद सबकी अनुमति से मैंने सरोजा जी से पुनः संपर्क किया और इस कार्यक्रम की रूपरेखा बताई और उनसे शब्द में पुनः सक्रिय होने का अनुरोध किया। उन्हें कार्यक्रम की यह रूपरेखा बहुत पसंद आयी और मानो वे भी हमारे आमंत्रण की ही प्रतीक्षा में थीं, उन्होंने सहर्ष इस कार्यक्रम से जुड़ने की सहमति दी और यह कार्यक्रम उनके शब्द में पुनः सक्रिय होने का सबब भी बना।

 

सर्वप्रम इस कार्यक्रम के लिए स्थान की खोज शुरू हो गई। यवनिका सभागार से सेकर टाउन हॉल इत्यादि अनेक सभा स्थलों पर विचार हुआ। कोई अपनी उच्च कीमत के कारण, कोई अपने लघु आकार के कारण, कोई अपने बड़े आकार के कारण तो कोई किसी अन्य कारण से सर्व स्वीकार्य नहीं हो पा रहा था। दैवज्ञ जी ने एक सुझाव दिया कि विश्वेश्वरैया म्यूज़ियम में भी एक सभागार है जो मध्यम आकार का है। इस संग्रहालय की लोकेशन भी शहर के बीचों बीच है जहाँ सबका पहुँचना आसान है। प्रयास करने पर हमें निशुल्क भी मिल सकता है। हमने शब्द के पत्रशीर्ष पर शब्द का परिचय देते हुए उसके कन्नड इत्यादि भारतीय भाषाओं के जुड़ाव व इसके आयोजकों का केंद्र सरकार के कार्यालयों से संबद्ध होने इत्यादि का ज़िक्र करते हुए एक प्रभावशाली पत्र तैयार किया और दैवज्ञ जी व अन्य एक दो लोगों के साथ म्यूज़ियम की क्यूरेटर के पास जा पहुँचे। वहाँ का ऑडिटोरियम देखा जो हमें बहुत पसंद आया। वहाँ एक-दो चक्कर और लगाने पड़े और अंततः बात बन गई। हमारे लिए वह ऑडिटोरियम नियत तारीख हेतु निशुल्क बुक कर दिया गया। अब तो हमारे उत्साह में मानो पंख ही लग गए। विचार गोष्ठी के लिए स्थानीय स्तर पर नामी व विद्वान वक्ताओं से संपर्क किया गया। सभी ने इस कार्यक्रम के लिए अपनी सहर्ष स्वीकृति दी। व्याख्यानों के बाद तिलक राज सेठ तलब जी की अध्यक्षता में एक कवि सम्मेलन करना तय हुआ। चूंकि कार्यक्रम लंबा था अतः व्याख्यानों व कवि सम्मेलन के बीच में दोपहर के भोजन की व्यवस्था भी की गई। इस कार्यक्रम के लिए कुछ सहयोग हमें दानदाताओं से प्राप्त हुआ और शेष व्यय सरोजा जी ने वहन किया। इस कार्यक्रम को राजस्थान पत्रिका सहित हिंदी के अन्य राष्ट्रीय एवं स्थानीय अख़बारों में भी पर्याप्त कवरेज मिली। यह कार्यक्रम अत्यंत सफल रहा और शब्द के इतिहास में तथा बेंगलूरु नगर के साहित्य जगत के इतिहास में यह मील का पत्थर साबित हुआ। यह कार्यक्रम बेंगलूरू के साहित्य व हिंदी जगत में काफी चर्चित हुआ जिससे शब्द की ख्याति बेंगलूरु में दूर-दूर तक फैल गई और अब हिंदी, उर्दू व कन्नड़ तीनों भाषाओं के साहित्यकार शब्द से जुड़ना व इसके कार्यक्रमों में शामिल होना गर्व की बात समझने लगे थे। इससे उत्साहित होकर सरोजा जी भी पुनः शब्द में सक्रिय हो गई थीं। कालांतर में उन्हें शब्द का अध्यक्ष भी चुन लिया गया।

 

शब्द में अब नई ऊर्जा का संचार हो चुका था। शब्द की गोष्ठियाँ नए उत्साह के साथ आगे बढ़ने लगीं। नए-नए साहित्यकार शब्द से जुड़ने लगे। अभी इस सिलसिले को बमुश्किल तीन महीने ही व्यतीत हुए होंगे कि मेरा भी दिल्ली स्थानांतरण का आदेश आ गया। इन छह वर्षों में मुझे बेंगलूरु के लोगों से जो स्नेह मिला वह अभूतपूर्व था। चाहे वह कार्यालय जगत हो, कार्यालय के बाहर अन्य सरकारी कार्यालयों का हिंदी जगत हो, बेंगलूरु नगर का साहित्य जगत हो या फिर संगीत जगत हो, हर तरफ से मुझे जो अपनापन मिला उससे मुझे कभी यह नहीं लगा कि मैं सुदूर दक्षिण भारत के किसी नगर में अपनों से दूर कहीं रह रहा हूँ। बेंगलूरु से विदा होने की कल्पना मात्र मुझे भावुक कर देने के लिए पर्याप्त थी। अंततः नवंबर 2001 में मैं भी बेंगलूरु से विदा हो गया।

 

दिल्ली में रहकर भी बेंगलूरू के मित्रों से संपर्क बना रहा। शब्द की गतिविधियाँ बेंगलूरु में बदस्तूर जारी थीं। शब्द की प्रगति की सूचनाएं बराबर मिलती रहती थीं। इस बीच शब्द से कई नए साहित्यकार जुड़े जैसे श्याम गोइंका, ज्ञानचंद मर्मज्ञ, डॉ. पी. जनार्दन, डॉ.  निर्मला प्रभु, वीणा जैन, रोशन लाल गुप्ता, मंजु वेंकट, जीएल शर्मा व डॉ. संतोष मिश्र इत्यादि।

 

अगले वर्ष पुनः एक वार्षिक कार्यक्रम की रूपरेखा पिछली बार की तरह ही बनाई गई। स्थान भी वही रहा - विश्वेश्वरैया संग्रहालय का सभागार। इस बार की परिचर्चा कबीर पर केंद्रित थी। इस आयोजन में मुख्य भूमिका सरोजा व्यास जी की ही थी। सरोजा जी ने मुझे व वेद प्रकाश, दोनों को इस कार्यक्रम में शामिल होने का आग्रह किया। हम भी  बेंगलूरु में सभी मित्रों से मिलना चाहते थे। अतः हम दोनों ने ही बेंगलूरु जाने का कार्यक्रम बना लिया। मुख्य वक्ता के रूप में वेद प्रकाश के साहित्यिक गुरू व लब्ध प्रतिष्ठित आलोचक, कथाकार व चिंतक पुरुषोत्तम अग्रवाल जी दिल्ली से आमंत्रित थे और कवि सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए भी दिल्ली से ही अशोक चक्रधर जी को आमंत्रित किया गया था, यद्यपि परिचर्चा में भी उन्हें विशिष्ट व्याख्याता के रूप में शामिल किया गया था। इन दोनों का हवाई यात्रा व्यय सरोजा जी ने स्वयं व्यय किया। हम लोग चूंकि एक मेहमान के तौर पर नहीं अपितु शब्द के एक अंतरंग सदस्य के रूप में गए थे, अतः हम दोनों ने अपना-अपना व्यय स्वयं वहन करना ही उचित समझा। इस कार्यक्रम के परिचर्चा सत्र के संचालन का जिम्मा मुझे सौंपा गया। यह भी एक अत्यंत सफल व यादगार कार्यक्रम था। इसके बाद भी संभवतः तुलसीदास जी को केंद्र में रखकर एक कार्यक्रम आयोजित किया गया। उसमें भी हमें आमंत्रित किया गया था, पर निजी व्यस्तताओं के कारण हममें से कोई भी नहीं जा पाया। बाद के वर्षों में दिल्ली की प्रमुख साहित्यिक संस्था - परिचय साहित्य परिषद की अध्यक्षा उर्मिल सत्यभूषण जी का भी बेंगलूरु आना जाना होता रहा। उन्हें मैंने सरोजा जी का फोन नंबर दिया। इस प्रकार वे भी शब्द से जुड़ गई थीं।

 

इस बीच सर्वप्रथम राकी गुप्ता जी के सेवानिवृत्ति के उपरांत असमय देहावसान का समाचार मिला और कुछ ही समय बाद संभवतः वर्ष 2003 में संजय प्रकाश जी के मात्र 51 वर्ष की अवस्था में दुनिया छोड़ जाने का दुखद समाचार मिला। दोनों ही समाचार स्तब्धकारी थे। बाद के वर्षों में पता चला कि निहाल हाशमी जी का अपने परिवार से अलगाव हो गया है, फिर पता चला कि वे भी इस फानी दुनिया से कूच कर गए। फिर डॉ. पीसी मानव के देहावसान का समाचार मिला। रह-रह कर पुराने साथियों के बिछुड़ने के समाचार कष्टकारी थे।

 

मेरे और वेद प्रकाश के दिल्ली जाने के बाद हमारी रक्त सिंचित पत्रिका - हरी धरती नीला आकाश भी अपने अवसान को प्राप्त हुई। वर्ष 2004 में शब्द की ओर से एक स्मारिका प्रकाशित की गई जिसका नाम "शब्दांजलि" रखा गया। इस स्मारिका का स्वरूप भी पत्रिका वाला ही था अर्थात कुल जमा तीन विज्ञापनों और पाँच शुभकामना संदेशों को छोड़कर 82 पृष्ठों की इस स्मारिका में शब्द से जुड़े साहित्यकारों की रचनाएँ ही प्रकाशित की गई थीं। मेरा व वेद प्रकाश का भी एक-एक आलेख इसमें शामिल किया गया था। कुल मिलाकर यह भी एक अच्छी स्मारिका अथवा पत्रिका थी जिसका संपादन ईश्वर चंद्र मिश्र ने सह संपादक के रूप में किया था। यों इसका संपादक मंडल विशाल था। प्रधान संपादक सरोजा व्यास थीं, गौरव संपादक डॉ. पी जनार्दन थे, शोध एवं संयोजन मंजू वेंकटक का था। संपादक मंडल में - डॉ. एनके सोनी, ज्ञान चन्द मर्मज्ञ, घनश्याम तिवारी तथा डॉ. संतोष कुमार मिश्र का नाम भी था।

 

सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था कि इस बीच पता चला कि शब्द दो धड़ों में विभक्त हो गया है। एक का नेतृत्व सरोजा व्यास व डॉ. एनके सोनी कर रहे हैं तो दूसरे का डॉ. पी जनार्दन व ज्ञानचंद मर्मज्ञ कर रहे हैं। दोनों समूह गोष्ठियों का अलग-अलग संचालन करने लगे। धीरे-धीरे मामला इतना गंभीर हो गया कि कोर्ट कचहरी तक जा पहुँचा। प्रश्न था कि शब्द का वास्तविक वारिस कौन है - यह पक्ष या वह पक्ष। जैसा कि होता आया है, न्यायालय से न्याय न मिलना था न मिला। सालों-साल केस चलता रहा, तारीख पे तारीख पड़ती रहीं। अंततः मामला आउट ऑफ कोर्ट सैटल हुआ जिस पर न्यायालय ने भी अपनी मुहर लगा दी। शब्द का असली वारिस पुराने धड़े को ही स्वीकार किया गया। इसके बाद सरोजा जी ने अध्यक्ष पद छोड़ दिया और शब्द के संरक्षक का पद स्वीकार किया।

 

इधर मेरी अपने कार्यालय में भी जिम्मेदारियाँ बढ़ती रहीं। पदोन्नति के लिए लिखित परीक्षा अनिवार्य कर दी गई, जिससे कार्यालय के सामान्य कामकाज के साथ-साथ पढ़ाई में अतिरिक्त समय लगाना पड़ता। 2013 में पदोन्नति के उपरांत मेरा मुरादाबाद स्थानांतरण हो गया। परिवार यहीं दिल्ली में ही रहा, मैं साप्ताहिक आता जाता रहा। मुरादाबाद में मंडलीय प्रबंधक भी रहा जिससे जिम्मेदारी और बढ़ गई। 2018 में पुनः पदोन्नत होकर दिल्ली स्थानांतरित हुआ। यहाँ दावा केंद्र का प्रमुख रहा। कुछ समय के लिए आंचलिक प्रशिक्षण केंद्र का प्रिंसिपल भी रहा। अपने सेवाकाल के अंतिम पड़ाव पर क्षेत्रीय प्रबंधक के पद पर प्रोन्नत हुआ और अंततः 30 जून 2022 को सेवा-निवृत्त हो गया।

 

इस सब के चलते शब्द से संपर्क लगभग टूट-सा गया। इस बीच दो-तीन मोबाइल भी चोरी हो गए जिससे पुराने फोन नंबरों से भी वंचित हो गया। इस कारण भी शब्द के पुराने साथियों से संपर्क नहीं रहा। यही स्थिति वेद प्रकाश की भी रही। जिन दिनों मेरा स्थानांतरण मुरादाबाद हुआ उन दिनों वेद प्रकाश का स्थानांतरण चंडीगढ़ हुआ। आजकल वह दिल्ली में ही अपनी कंपनी - ओरिएंटल इंश्योरेंस में वरिष्ठ मंडल प्रंबंधक हैं।

 

एक दिन अचानक मेरे पास पुराने मित्र इंदुकांत आंगिरस का फोन आया। इंदुकांत जी दिल्ली की प्रतिष्ठित संस्था परिचय साहित्य परिषद के संस्थापक सदस्य व सचिव थे जिसकी नियमित गोष्ठियाँ दिल्ली स्थित रूसी सांसकृतिक केंद्र में आयोजित होती थीं। इंदुकांत जी जब तक दिल्ली में रहे परिचय साहित्य परिषद की गोष्ठियों का संचालन का जिम्मा उन्हीं को सौंपा जाता था। उर्दू की जिस संस्था का ज़िक्र मैंने शुरू में किया था - हलक़ा--तश्नगाने अदब,  उसकी नशिस्तों में भी वे बराबर शिरकत किया करते थे। इंदुकांत जी हिंदी, अंग्रेज़ी, उर्दू व हंगेरियन सहित अनेक देशी-विदेशी भाषाओं के अच्छे जानकार हैं। वे काफी समय से बेंगलूरु में हैं। उन्होंने एक साहित्यिक पत्रिका अदबी यात्रा का -प्रकाशन आरंभ किया है। उन्होंने मुझसे भी पत्रिका के साथ जुड़ने का आग्रह किया। मेरे लिए तो यह खुशी की बात थी। मेरी कुछ रचनाएँ भी उन्होंने इस पत्रिका में प्रकाशित कीं। एक दिन उन्होंने अपने एक आलेख में तलब जी का ज़िक्र किया, तो मैंने उनका कुशलक्षेम जानना चाहा, पता चला कि एक अरसा हुआ वे भी अब इस दुनिया में नहीं हैं। मेरे लिए यह एक और झटका था।

 

एक दिन न्यू इंडिया के मेरे साथी मित्र और तमिलनाडु के लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार ईश्वर चंद्र झा करुण बेंगलूरु में इंदुकांत जी से मिले तो बातों-बातों में शब्द का ज़िक्र छिड़ा जिससे इंदुकांत जी को पता चला कि शब्द की स्थापना में मेरा भी योगदान था। इस जानकारी के बाद उन्होंने मुझसे शब्द पर एक संस्मरण लिखने को कहा। मैंने हामी तो भर दी पर किसी न किसी कारण से यह कार्य टलता रहा। लेकिन सेवानिवृत्त होते ही मैंने पहला कार्य इस संस्मरण को लिखने का किया। जब आरंभ किया था तो लगता था सब कुछ विस्मृत हो चुका है। एक-आध पृष्ठ से आगे बात बढ़ नहीं पाएगी। इस कारण कई दिनों तक यह आलेख दो पन्नों से आगे नहीं बढ़ पाया। एक दिन बहुत ढूंढने पर हरी धरती नीला आकाश तथा शब्दांजलि का अंक मेरे हाथ लग गया। फिर तो धीरे-धीरे, एक-एक करके समृतियों के पन्ने खुलते चले गए और इस संस्मरण के पन्ने भरते चले गए।

 

बहुत समय से सरोजा जी, सोनी जी, ईश्वर चंद्र मिश्र जी, दैवज्ञ जी, प्रभाशंकर प्रेमी जी इत्यादि मित्रों से संपर्क नहीं हुआ है न ही किसी अन्य से उनके कुशलक्षेम का समाचार मिला है। अपने फोन में तलाश करने पर मुझे श्रीनारायण सिंह समीर जी का फोन नंबर मिल गया। संयोगवश एक दिन बात भी हो गई। उनसे एक और दुखद समाचार पता चला कि कई वर्ष पूर्व ही डॉ. एनके सोनी जी का भी देहावसान हो चुका है। दैवज्ञ जी सेवानिवृत्ति के उपरांत अपने गृह नगर धारवाड़ चले गए थे, उसके बाद से उनका श्रीनारायण जी से भी कोई संपर्क नहीं रहा। प्रसन्नता की बात है कि सरोजा जी अपनी वरिष्ठता के सोपान पर आगे बढ़ते हुए अभी भी सक्रिय हैं और शब्द भी अपनी रफ्तार से आगे बढ़ रहा है। यह शब्द का रजत जयंती वर्ष है और इस अवसर पर एक बड़े कार्यक्रम के आयोजन की भी तैयारी है। यह जानकर भी प्रसन्नता हुई कि एक समय में जिस शब्द को छोटे-मोटे कार्यक्रम के खर्चों के लिए भी भारी मशक्कत करनी पड़ती थी वह शब्द आज साहित्यकारों को प्रति वर्ष एक लाख रुपये के पुरस्कार से सम्मानित कर रहा है।  

 

यह लेख लिखते समय मुझे सरोजा जी की एक बात बरबस याद हो आती है कि "लोग आते हैं लोग जाते हैं, पर संस्था चलती रहती है" मुझे खुशी है कि 25 साल पहले जो शब्द रूपी पौधा हम पाँच लोगों ने मिल कर लगाया था आज भी वह एक विशाल वृक्ष के रूप में फल-फूल रहा है। इस आलेख के माध्यम से मैं शब्द से जुड़े पुराने व नए सभी साहित्यकारों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना करता हूँ।

 

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 NOTE :       बैंगलोर की  साहित्यिक संस्था " शब्द " से सम्बंधित भूपेंद्र कुमार जी के संस्मरण के लिए अदबीयात्रा उनकी आभारी है।  हर साहित्यिक संस्था से अनेक लोग जुड़े होते हैं और संस्था से  सम्बंधित उनकी जानकारी और विचार भी भिन्न हो सकते हैं। उपरोक्त आलेख में दर्ज लेखक के विचारों से ' अदबीयात्रा ' का सहमत होना अनिवार्य नहीं है।