Saturday, March 13, 2021

हंगेरियन कवि - Wollák Zoltán की कविताओं का हिन्दी अनुवाद

 




अपने बुदापैश्त के प्रवास के दौरान मुझे चंद हंगेरियन कवियों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ , उन्हीं में से एक कवि का नाम  Wollák Zoltán  है। उन्होंने मुझे दो बार अपने घर पर आमंत्रित किया और अपनी कविताओं  की पुस्तक  OÁZIS  भी भेंट करी।  मुझे याद है कि मेरी पहली मुलाक़ात के दौरान उन्होंने अपने एक मित्र Timia Bäck को  भी बुला रखा था जो स्वयं एक कवयित्री थी और लगभग उतनी अँगरेज़ी जानती थी जितनी कि मैं उस वक़्त हंगेरियन जानता था।।  Wollák Zoltán  भारत की संस्कृति से प्रभावित थे और अपनी एक लम्बी कविता में उन्होंने भारत और गाँधी का ज़िक्र भी किया है। लीजिये प्रस्तुत है उनकी पुस्तक OÁZIS  से चंद कविताओं का हिन्दी अनुवाद - 


Ember a perononप्लेटफॉर्म पर खड़ा आदमी


मुझे किसी का इन्तिज़ार नहीं

कभी किसी को छोड़ने भी नहीं आया

मालूम नहीं फिर भी यह प्लेटफ़ार्म

मुझे क्यों इतना प्रिय है ?

प्लेटफ़ार्म की भीड़ में मेरा गुम होना

और अचानक

किसी ट्रैन के चलते ही

एक दिवास्वप्न की मानिंद

दूर जाते मुसाफ़िरों को

मेरा हाथ हिलाना । 





Tavasz  -  वसंत


दस हज़ार शब्द भी कम पड़ेंगे लिखने को

धरती से फूटता वसंत, साँसों में भरने को

मिट्टी के घोंसले में बैठे हैं दो पंछी

लौटे पिछले साल के अबाबील पंछी । 







Kihalt város -  मरा हुआ शहर


किसको पता है , कब , किसलिए

यहाँ से चले गए थे सब लोग

बस जागती रही थी मौत

सड़कों और चौराहों पर ,

अगर उत्तर दिशा की हवा लाये बारिश

हर सड़क के कोने...

मुंडेरों से गिरती अनंत बूँदे

भिगो दे जर्जर  दीवारों को

तब जीवंत हो उठेगा  ये शहर ।



कवि - Wollák Zoltán

जन्म - 17th April 1945 , Nyiregyháza



अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 


NOTE : अफ़सोस कि भारत लौटने के बाद मेरा संपर्क उनसे टूट गया। ईश्वर से यही   प्रार्थना है कि वे आज भी कविताएँ  रच रहें हो।


                                      तस्वीर में  बाये से Wollák Zoltán Timia Bäck  और मैं

Friday, March 12, 2021

ग़ज़ल ख़ुद कहनी पड़ती है......


 आज  अरबी , फ़ारसी , उर्दू से होते हुए हिन्दी और हिन्दुस्तान की दीगर ज़बानों में ग़ज़ल कही जा रही है।  ग़ज़ल का जादू चढ़ता  जा रहा है और इसकी लोकप्रियता दिनोदिन बढ़ती जा रही है। विशेषरूप से ग़ज़ल गायकों ने ग़ज़ल को जन जन तक पहुँचाया।  ग़ज़ल कहना एक मुश्किल फ़न है , जी हाँ ग़ज़ल लिखी नहीं जाती बल्कि कही जाती है। एक ज़माना था जब ग़ज़ल में अशआर के  मौजूं  सिर्फ़ आशिक़ और माशूक़ के दिलों तक सीमित थे  लेकिन आज ग़ज़ल में समाज के सब पहलू देखने को मिलते है और इसका श्रेय विशेषरूप से हिन्दी ग़ज़लकारों को जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि हिन्दी ग़ज़लकारों को उर्दू ग़ज़ल के उरूज़ समझने में मुश्किल आती है लेकिन पिछले कुछ दशकों में हिन्दी ग़ज़लकारों ने बेहतरीन ग़ज़लें कही हैं। 


उर्दू अदब में  उस्ताद और शागिर्द  की एक तवील  रवायत है लेकिन हिन्दी साहित्यिक संसार  में गुरु - शिष्य की परम्परा उतनी नहीं मिलती।  उर्दू और हिन्दी  साहित्यिक संसार में अनेक साहित्यिक संस्थाएँ मिल जाएँगी , कुछ संस्थाएँ छोटी हैं तो कुछ बड़ी। कुछ शाइरों का मानना है कि किसी बड़े इदारे या बड़ी संस्था से जुड़ कर उनका अपना मुक़ाम  ऊपर उठ जायेगा लेकिन यह सच नहीं। पिछले दिनों  हल्क़ा-ए-तश्‍नगाने अदब , दिल्ली  की ५३० वी नशिस्त में जनाब प्रमोद शर्मा 'असर ' द्वारा पढ़ा गया  यह शे'र  देखे -


इदारे  से  बड़े   जुड़ कर   जो  इतराये  उन्हें  कह दो 

ग़ज़ल ख़ुद कहनी पड़ती है , इदारा कुछ नहीं करता 




यह  शे'र सिर्फ उन शाइरों पर तंज़ करता हैं जो किसी बड़े इदारे से जुड़ कर ख़ुद पर इतराते हैं। 

हंगेरियन लोक कथा - A farkas - tanya का हिन्दी अनुवाद


 A farkas - tanya -  लोमड़ियों का फ़ार्महाउस 


प्राचीन समय की बात है।  दूर बहुत दूर सात समुन्दर पार एक अंडा रहता था। यह अंडा दुनिया की सैर को निकल पड़ा। लुढ़कते लुढ़कते एक बार उसकी मुलाक़ात एक बतख से हुई।  

- अंडे भाई , कहाँ जा रहे हो ? - बतख ने उससे पूछा। 

- दुनिया की सैर करने जा रहा हूँ। 

- मैं भी चलती हूँ , साथ साथ घूमेंगे। 

चलते गए , चलते गए, चलते चलते उन्हें एक मुर्गा मिला। 

- तुम सब कहाँ जा रहें हो , बतख बहिन ? 

- हम दुनिया की सैर करने जा रहें हैं। 

- मैं भी चलता हूँ , साथ साथ घूमेंगे। 

चलते गए , चलते गए, चलते चलते उन्हें एक सुई मिली।  

- तुम सब कहाँ जा रहें हो , मुर्गे भाई ? सुई ने पूछा। 

- हम दुनिया की सैर करने जा रहें हैं। 

- मैं भी चलती  हूँ , साथ साथ घूमेंगे। 

चलते गए , चलते गए, चलते चलते उन्हें एक केकड़ा  मिला ।

 तुम सब कहाँ जा रहें हो , सुई बहन ? केकड़े ने पूछा। 

- हम दुनिया की सैर करने जा रहें हैं। 

 - मैं भी चलता हूँ , साथ साथ घूमेंगे। 

इसी तरह चलते चलते उन्हें सफ़र में  एक घोडा और फ़िर एक बैल मिला। एक बार चलते चलते रात हो गयी। 

वहाँ एक छोटा मकान था , वे सब उसी में घुस गए। सब अपनी अपनी जगह पर लेट गए। अंडा बुझी आग की राख पर ही लेट गया। बतख और मुर्गा चूल्हे की चिमनी के ऊपर लेट गए। केकड़े ने पानी के टब में छलांग लगा दी। सुई ने ख़ुद को  तौलिये में टाँक लिया। घोडा घर के बीचो - बीच पसर गया और बैल ड्योढ़ी पर। 


एक बार वहाँ १२ लोमड़ी आई , यह घर उन्हीं का था। एक बुजुर्ग लोमड़ी ने दूर से ही चिल्लाना शुरू कर दिया - 

मकान से अजीब गंध  आ रही है , घर में पहले कौन घुसेगा ? उन्हीं में एक बहादुर लोमड़ी थी, उसने कहा कि वह जाएगी घर के अंदर ,चाहे घर में हज़ार राक्षस हो , वह किसी से नहीं डरती।  


बहादुर लोमड़ी घर में घुस गयी। सबसे पहले वह लालटेन जलाने के लिए चूल्हे की चिमनी पर माचिस ढूँढने लगी  लेकिन बतख और मुर्गे ने शोर मचाना शुरू कर दिया। तब वह राख में जलते कोयले ढूँढने लगी लेकिन वहाँ लेटा अंडा भयानक  आवाज़ के साथ फूट पड़ा। लोमड़ी ख़ुद को धोने के लिए   पानी के टब की और दौड़ी  लेकिन वहाँ केकड़े ने अपने कैंचीनुमा डंको से उसे डंक मार दिया ।  वह घबराहट में घर के बीच में भागी लेकिन वहाँ लेटे घोड़े  ने उसे अपनी लात से मारा।  लोमड़ी जैसे ही बाहर की ओर दौड़ी तो वह बैल से टकरा गयी ओर बैल ने उसे अपने सींगों से उठा कर बाहर आँगन में फेंक डाला। लोमड़ी इस सब से घबरा कर  यूँ  चिल्लाने लगी  जैसे  पेड़ में फँसे कीड़े चिल्लाते हैं , वह बाकी लोमड़ियों की तरफ़ भागी। 

- भागो , जल्दी भागो यहाँ से  , अंदर बहुत सारे राक्षस हैं। ये सब लोमड़ियाँ तभी से आज तक भाग ही रही हैं अगर अभी तक रुकी ने हो तो। 



अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 

Thursday, March 11, 2021

हंगेरियन गद्य - Soror Annuncia का आंशिक हिन्दी अनुवाद



 सर्द  डूबती शाम की किरणें बोर्डिंग स्कूल की छत से टकरा कर नीचे की ओर निरंतर बंजर मैदान में पसरती जा रही थी जैसे  कि एक कुरूप सौ पैरों वाली मकड़ी का जाला फैलता जाता है... फैलता ही जाता है ओर उस जाले के बीच मकड़ी एक मूढ़ स्थिरता के साथ बैठी रहती है। कैसे रेंगता है समय - अभी सिर्फ पौने चार बजे है। मठ के बग़ीचों  के नंगे  पेड़ ओर ग्रिल की खिड़कियों वाली उस इमारत के गहराते सुरमई पंख। उबाऊ  है -- बहुत उबाऊ ।  १७ साल की उम्र में बाहर खिड़कियों में देखना भी ठीक नहीं , हाँ ,जब बड़े हो जायेंगे तो उछलते हुए बेसब्री से भविष्य की ओर बढ़ेंगे लेकिन तब तक , एक और ख़ूबसूरत साल के लिए रहेंगे क़ैद इस पत्थर वाले ताबूत में। आज जैसा ही कल भी होगा।  हर आधे घंटे में बजती घंटियों की आवाज़ शाम को अधिक ग़मगीन बना देगी - प्रार्थना , यज्ञ , सामूहिक उत्सव , अगरबत्ती ,आध्यात्मिक अभ्यास , शिविर , साधारण चक्की। मरे हुए दिन , गहरी नींद और चुराई हुई राते।  गणित ,भूगोल और संगीत की कक्षा और सब कुछ फिर से शुरू। 


अब संगीत की कक्षा थी और मैं पियानो के नज़दीक बैठी थी।  मेरे सामने बेंचों की कतार थी , मकड़ी के जाले जैसी आँखों  वाली  लड़कियों के पंक्तिबद्ध सिर और मेरी बगल में कुर्सी पर पीछे की तरफ़ झुकी बैठी थी मेरी मठवासिनी  अध्यापिका -  सिस्टर अनुनत्सया  ।  




कवियत्री - Kaffka Margit 


जन्म -   10th June ' 1880 , Nagykároly


निधन - 1s December ' 1918 , Budapest 




अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस