Saturday, November 28, 2020

हंगेरियन लतीफ़े -Pingvin , Taxiban , Bánat


 हंगेरियन लतीफ़े


Pingvin - पैंग्विन 


सोमवार :

- इस पैंग्विन के साथ क्या कर रहें हो ?

- सड़क पर मिल गयी थी , मैं भी तुम से यही पूछने जा रहा था कि क्या करूँ इसका ?

- क्या बेहूदा सवाल है , चिड़ियाघर ले जाओ इसे। 


मंगलवार :


-  पैंग्विन अभी भी तुम्हारे साथ ही है ? चिड़ियाघर नहीं ले कर गए ?

- कल चिड़ियाघर ही ले गया था।  आज हम दोनों फ़िल्म  देखने जा रहें हैं। 



Taxiban -टैक्सी में 


सवारी - मैंने ठीक से गिनती की है , आप अभी तक सात बार रेड लाइट सिग्नल तोड़ चुके हैं। अब सिग्नल हरा है ,अब  क्यों रुके हो ?


ड्राइवर -  पागल नहीं हूँ मैं , चैराहे के दूसरी तरफ़ से मेरे साथी लोग आ रहें हैं। 



 Bánat - पछतावा  :


- क्या हुआ तुम्हें , इतने दुखी क्यों हो ?


- अरे  क्या बताऊँ ,कल शाम मेरे एक सहकर्मी  ने इतनी शराब पी ली कि नशे में केलेति रेलवे स्टेशन ही बेच डाला। 


- ये सरासर पागलपन है , पर इसके लिए तुम क्यों परेशान हो रहें हो ?


- क्यों कि मैंने ही उसे ख़रीदा था। 



अनुवादक - इन्दुकांत आंगिरस 

Monday, November 16, 2020

कीर्तिशेष सर्वेश चंदौसवी और उनका निसाब




 उस्तादों के उस्ताद  कीर्तिशेष सर्वेश चंदौसवी से मेरी पहली मुलाक़ात शायद ३५ वर्ष पूर्व दिल्ली में ही हुई थी।  लगभग ५ फुट ५ इंच का क़द , फ़िक्र में डूबे लेकिन लबों पर सदा मुस्कराहट , उनकी गर्मजोशी आज भी याद है।  जनाब सर्वेश चंदौसवी अक्सर परिचय साहित्य परिषद् की महाना नशिस्तों में रूसी सांस्कृतिक केंद्र में आते और अपनी पुरज़ोर  आवाज़ में ग़ज़ल और गीत पढ़तें। अपने काव्य पाठ के दौरान उन्हें  किसी तरह का दख़ल पसंद नहीं था लेकिन हर अच्छे शे'र पर खुल कर  दा'द ज़रूर देते। चंदौसी शहर में जन्मे सर्वेश चंदौसवी विज्ञान  के विद्यार्थी रहे लेकिन शाइरी  उनके ख़ून में बसती थी।  ग़ज़ल जैसी मुश्किल विधा पर उनको महारत हासिल थी। उनके गुरु ईश्वर और प्रकृति थे ,उन्होंने ख़ूब मेहनत  कर शाइरी का इल्म हासिल किया और हिंदी व उर्दू साहित्य संसार में अपनी अलग पहचान स्थापित करी। किन्ही पारिवारिक कारणों से उनकी पुस्तकों  का प्रकाशन काफ़ी देर से हुआ।  जब  २०१४ में उर्दू शाइरी पर उनकी १४ किताबें  एक साथ प्रकाशित हुई तो साहित्यिक जगत हतप्रभ हो गया। इसी सिलसिले में २०१५ में १५ किताबें  ,२०१६ में १६ किताबें  , २०१७ में १७ किताबें  ,२०१८ में १८ किताबें  ,२०१९ में १९ किताबें  उनके जीवन में ही प्रकाशित हो गयी लेकिन इस सिलसले की अंतिम कड़ी यानी २०२० में २० किताबों के प्रकाशन का स्वप्न   टूट गया और हमने  एक बड़े शाइर को खो दिया।  उनके शागिर्द उनके इस अधूरे स्वप्न को पूरा करने में लगे हैं और आशा हैं कि २०२० के अंत से पहले ही उनकी २० किताबें प्रकाशित हो जाएँगी। 

                                   उनके द्वारा रचित कुल ११९ किताबें हिन्दी और उर्दू साहित्य जगत  में एक मिसाल बन चुकी हैं। ग़ज़ल के अलावा उन्होंने क़तआत ,रुबाई ,तसलीस , दोहा ,कहानी विधा में भी लेखन किया।  अपनी हर ग़ज़ल की पुस्तक  में उन्होंने ग़ज़ल के व्याकरण को अत्यंत  सरल शब्दों में व्यक्त किया जोकि हर ग़ज़लकार के लिए किसी ख़ज़ाने से कम नहीं , विशेषरूप से नव ग़ज़लकारों के लिए ये पुस्तकें अत्यंत मददगार साबित हो चुकी हैं।  अपनी पुस्तक " फ़ने उरूज़ नस्ले नौ और मैं " के ज़रीये उन्होंने नयी पीढ़ी तक ग़ज़ल के उरूज़ को पहुँचाने का प्रयास किया। 

मैं उनका शागिर्द तो नहीं था लेकिन अच्छा दोस्त ज़रूर था।  जब कभी भी मुझे किसी लफ़्ज़ के बारे में कुछ पूछना होता तो मैं बेझिझक  किसी भी वक़्त उनसे फ़ोन करके पूछ लेता था , यक़ीनन सर्वेश चंदौसवी हिन्दी , उर्दू ज़बान और ग़ज़ल के उरूज़ के चलते-फिरते इनसाइक्लोपीडिया  थे। हिन्दी और उर्दू ज़बान पर उनकी गहरी पैठ थी और उनका हाफ़िज़ा भी क़ाबिले तारीफ़ था। 


मेरी उनसे आख़िरी मुलाक़ात बैंगलोर में कवि मित्र  श्री कमल राजपूत 'कमल ' के घर पर हुई थी , जहाँ वे कमल राजपूत के निमंत्रण पर तीन  दिनों के लिए बैंगलोर आये हुए थे।  दोपहर का भोजन हमने साथ मिलकर खाया और उसी दिन शाम की ट्रैन से उनकी दिल्ली की वापसी थी। 

बैंगलोर की उनकी एक और यादगार यात्रा का ज़िक्र भी यहाँ ज़रूरी है जब सर्वेश जी अपने कवि मित्रों और शागीर्दों के साथ बैंगलोर , मैसूर और ऊटी घूमने के लिए आये थे।  इस अवसर पर बैंगलोर के जिनेश्वर सभागार में,  पुस्तकम एवं जैन समय के संयुक्त तत्वावधान में १३ अप्रैल २०१९ को जश्ने ग़ज़ल - कुल हिन्द मुशायरे का आयोजन किया गया। इस यादगार  मुशायरे की सदारत   बैंगलोर के नामवर उस्ताद  शाइर जनाब गुफ़रान अमजद ने की और सर्वेश चंदौसवी मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे। मुशायरे में देश के कई नामवर शाइरों ने शिरकत फ़रमाई जिनमें सर्वश्री मनोज अबोध , अनिल वर्मा 'मीत ',अरसल बनारसी , विजय स्वर्णकार , असजद बनारसी , ज्ञान चंद मर्मज्ञ ,मोहसिन अख़्तर मोहसिन, नरेश शांडिल्य , माधुरी स्वर्णकार , रूबी मोहंती , शशि कान्त , सुधा दीक्षित , डॉ शशि मंगल, अकरमुल्ला बेग़ 'अकरम ', हामिद अंसारी , गरिमा , शेख़ हबीब , तैयब अज़ीज़, प्रमोद शर्मा 'असर ', इन्दुकांत आंगिरस    के नाम उल्लेख्नीय हैं। 

वैसे तो उनके साथ मेरी अनेक यादे जुडी हैं लेकिन दो वर्ष पहले सर्वेश जी मेरे निमंत्रण पर बैंगलोर आये थे और एक हफ़्ता मेरे साथ ही रहे थें। आख़िरी दिन इत्तफ़ाक़ से मेरा बावर्ची  नहीं आया था।  इससे पहले कि मैं कुछ और व्यवस्था करता सर्वेश जी ने इसरार किया कि आज का भोजन वो पकाएँगे।  उस दिन उन्होंने भिंडी की सब्ज़ी और पूरी बनाई , यक़ीन मानिये इतना लज़ीज़ खाना पहले कभी नहीं खाया था।  मैंने उनसे कहा कि उनके खाना बनाने की बात दोस्तों से साझा करूँगा तो बोले - " इस  बात पे कोई यक़ीन ही नहीं करेगा "। इस एक हफ़्ते में उनसे अंतरंग बाते भी हुई और मुझे मालूम पड़ा कि शाइरी के अलावा भी आप अनेक हुनर जानते थे। 

शेख़ इब्राहिम ज़ौक़  का शे'र ज़हन में कौंध गया -


क़िस्मत से ही मजबूर हूँ ऐ ज़ौक़ वगरना

हर फ़न में हूँ मैं ताक़ मुझे क्या नहीं आता


यह अफ़सोस की बात हैं कि हिन्दी और उर्दू साहित्यिक दुनिया में उनका विरोध करने वालों की कमी न थी। उनके साहित्यिक योगदान  के हिसाब  से उन्हें मान -सम्मान नहीं मिल पाया लेकिन उन्होंने किसी से हार नहीं मानी और अदब का दीप निरंतर जलाते रहे।  आख़िरकार वो दौर भी आया जब साहित्यिक दुनिया को उनके अदब का लोहा मानना पड़ा। इस सिलसिले में हफ़ीज़ जालंधरी का यह शे'र याद आ गया -


' हफ़ीज़ ' अहल -ए-ज़बाँ कब मानते थे 

  बड़े    ज़ोरों से     मनवाया     गया हूँ 



सर्वेश जी बहुत खुद्दार इंसान थे , बनावट और दिखावे से कोसो दूर। उनका मानना था कि जो लोग दूसरों के काँधों पर चढ़ कर तरक्की करते हैं वो ख़ुद बहुत पिछड़े हुए होते हैं। उन्होंने कभी किसी सम्मान को पाने के लिए किस तरह का  जोड़ -तोड़ नहीं किया , उनका मानना था कि जिसके पास हुनर का मोती है ,समुन्दर उनके पास ख़ुद चल कर आते हैं।  उनका यह शे'र देखे - 


क़लम   का 'सर्वेश' जो धनी है 

वो कब किसी से ख़िताब माँगे ?



राज़े - हस्ती है  सर्वेश क्या 

तीन हर्फ़ी 'अजल ' आदमी 


सर्वेश जी  राज़े-हस्ती की हक़ीक़त से बख़ूबी वाकिफ़ थे। सारी ज़िंदगी अदब के ज़रीये इस दुनिया की ख़िदमत करते रहे और ख़िदमत करते करते एक दिन इस दुनिया को अलविदा कह गए। हिंदी और उर्दू साहित्य संसार उनके साहित्यिक योगदान को कभी भुला नहीं पायेगा। उनके शागीर्दों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त हैं जिनमें सर्वश्री विजय स्वर्णकार , अनिल वर्मा " मीत " और प्रमोद शर्मा " असर " के नाम उल्लेखनीय  हैं। मुझे पूरी उम्मीद है कि उनके शागिर्द उनके द्वारा जलाई गयी अदब की मशाल को कभी बुझने नहीं देंगेऔर अदबी दुनिया में उनका नाम रौशन करेंगे।

यक़ीनन ऐसे फ़नकार सदियों में आते हैं जो इस दुनिया से जाने के बाद भी लोगो  के दिलो - दिमाग़  से कभी नहीं निकल पाते।इंशा अल्लाह  उनकी आखिरी ख़्वाइश ज़रूर पूरी होगी -


'सर्वेश ' मेरी आख़िरी ख़्वाइश यही है बस 

पा जाएं मेरे   शे'र    निसाबों की    ज़िंदगी 




जन्म - १ जुलाई ' १९४९ , चंदौसी -उत्तर प्रदेश 

निधन - २5 मई ' २०२० - दिल्ली 



NOTE:

सर्वेश जी के शागिर्द विजय स्वर्णकार और अनिल मीत को उनके सहयोग के लिए शुक्रिया । 

यह भी एक संयोग ही है कि जनाब सर्वेश चंदौसवी और राजगोपाल सिंह, दोनों की जन्म तिथि १ जुलाई है। 

Tuesday, November 10, 2020

कीर्तिशेष डॉ अर्चना त्रिपाठी और उनके ठहाके



 कीर्तिशेष डॉ अर्चना त्रिपाठी से मेरी पहली मुलाक़ात शायद परिचय साहित्य परिषद् की एक गोष्ठी  में ही हुई थी , अत्यंत सहज ,सरल , नम्र ,  मितभाषी, साहित्य की मर्मज्ञ एक ऐसी  विदुषी थी जिनके मुख पर सदैव एक सहज मुस्कान बिखरी रहती थी। अर्चना त्रिपाठी एक ज़िंदादिल इंसान थी और उनके ठहाकों को कौन भुला सकता है।  हर महीने उनसे मिलने एक दो बार उनके घर चला ही जाता था और कालांतर में उनके पति डॉ वेद प्रकाश मेरे अच्छे मित्र भी बन गए। साहित्य और साहित्यकारों पर अक्सर हमारी चर्चाएं होती और बीच बीच में अर्चना जी के ठहाके। उन्हें ग़ज़ल सुनने का भी बहुत शौक़ था ,अक्सर बेगम अख़्तर की आवाज़ और मीर तक़ी मीर की ग़ज़लें उनके घर में धीमी धीमी आँच के साथ  गूँजती रहती। एक स्त्री होने के नाते वह स्त्री के दुःख दर्द को बेहतर समझ सकती थी और स्त्री विमर्श पर उन्होंने बहुत कुछ लिखा, उन्ही के शब्दों में -

 "आधुनिक नारी या समकालीन स्त्री के चिंतन का विषय है - स्त्री उसका जीवन और उस जीवन की समस्याएँ। कहने वाले कह सकते है कि वह अपने को समेट रही है केवल अपने जीवन में।  समाज के वृहतर मूल्यों से वह कट रही है।  लेकिन क्या अपनी ओर से आँख मींच कर दुनिया देखी जा सकती है ? तर्क दिए जाते हैं कि ज्ञान को अलग संवर्ग में बाँट कर चर्चा नहीं करनी चाहिए।  स्त्री के मूल्य ओर पुरुष के मूल्य कोई अलग थोड़े ही हैं। फिर भी कोई यह कैसे भूल जाये कि प्रगति के महावृतान्त लिखते वक़्त स्त्री की  भूमिका नगण्य रही। सार्वभौमिक ,तर्कशील  ओर बुद्धिपरायण व्यक्ति ही वास्तव में सत्ता का आधार है ओर बार बार अनिवार्यतः अपनी सारी निष्पक्षता के बावजूद वह पुरुष ही होता है। स्त्री वहाँ हाशिये पर ही है।  स्त्री करे तो क्या करे। इस पितृसत्तात्मक श्रेणीकृत  समाज में अपना स्थान कहाँ बनाये।  यहाँ  यह ध्यान रखना चाहिए कि तकलीफ़ खतरनाक चीज़ है। अतः स्त्री से यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि वह अनंत काल तक अंधेरे कोनों में मुहँ लपेटे पड़ी रहेगी।  न्यूटन ने गति का जो तीसरा नियम दिया , वह प्रगति पर भी उतना ही लागू है जितना सामन्य गति पर।  स्प्रिंग तत्व एक सीमा के बाद दबने नहीं देता .  जितनी ज़ोर से स्प्रिंग दबता है उतनी ही ज़ोर से उछलता भी है।  "


अर्चना त्रिपाठी ने एक लम्बे अर्से तक केंद्रीय हिंदी निदेशालय ,दिल्ली में "  सहायक निदेशक " के पद पर कार्य किया और कुछ वर्षों तक " भाषा " पत्रिका का सम्पादन भी किया। एक अधिकारी एवं  साहित्यकार होने के साथ साथ अर्चना त्रिपाठी एक ज़िम्मेदार गृहणी भी थी , अपने दोनों बेटों की पढ़ाई को लेकर हमेशा चिंतित रहती ओर उनको नियमित रूप से पढ़ाया करती थी। लेकिन पढाई के साथ साथ उन्हें इस बात का दुःख भी था कि महानगर दिल्ली में रहते हुए उनके अपने बचपन जैसी उन्मुक्तता अब उनके बच्चो को नहीं मिल पा रही है ,  इसी सिलसले की उनकी कविता की यह पंक्तियाँ  देखें  - 


महानगर ओर बच्चा 


मेरे बच्चों 

नहीं दे पा रहीं मैं तुम्हें

बचपन की उन्मुक्तताएँ 

वो तितली , वो कोयल 

वो कमल   भरे जलाशय 

बैलगाड़ियाँ , नदी , पुआल ,

हर छुट्टी में गावँ , रिश्तेदार 

ठन्डे पानी के कुँए , कुओं में ख़रबूज़े ,तरबूज़ ओर आम 

राधेश्याम रामायण वो हँसी , ठिठोली -

आँधी के आते ही दौड़ना बग़ीचों में 

वो टपकों को बीनना , गिनना ओर बताना 

जैसे जीता हो एक पूरा का पूरा कारगिल 


यहाँ इस महानगर में 

मेर पास तुम्हें देने को है छोटा-सा फ़्लैट

सुबह शाम कभी कभी थोड़ा-सा पार्क  

महीने दो महीने में अप्पूघर ओर मैकडोनाल्ड 

मैकडोनाल्ड की सिंथेटिक क्रीम जैसे सिंथेटिक रिश्ते 


मेरे वंशज , मेरी भावी पीढ़ी , मेरे बच्चों 

हो सके तो मुझे माफ़ कर देना



मैं जब तक दिल्ली में रहता था  उनसे मुलाक़ाते होती रहती थी लेकिन बैंगलोर आने के बाद यह सिलसिला टूट गया था।  मेरी उनसे आख़िरी  मुलाक़ात उनकी मृत्यु से कुछ महीने पहले उनके घर पर ही हुई थी।  दोपहर का वक़्त था , वो घर पर अकेली थी , बहुत ही शांत ओर बुझी बुझी और  उस दिन उन्होंने कोई ठहाका नहीं लगाया। कुछ महीनों के बाद ख़बर   मिली कि अर्चना त्रिपाठी इस दुनिया में अब नहीं रही , उनके ठहाके भी उनके साथ ही चले गए लेकिन  शायद नहीं ....  जिन्होंने भी अर्चना त्रिपाठी के ठहाके सुने हैं , वो उनको आज भी महसूस कर सकते हैं।


अर्चना त्रिपाठी  की  आवाज़ ओर उनका नाम , हंगेरियन अन्वेषक Sándor Kőrösi Csoma के जीवन पर आधारित हंगेरियन डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म Az Élet  Vendége में भी पढ़ा-सुना  जा सकता है। 



प्रकाशित पुस्तकें -


शब्द बोलेंगें - कविता संग्रह 

काली मशाल - अफ़्रीकी कविताओं का  अनुवाद 

सुखिया सब संसार है - कविता संग्रह 

नई आर्थिक नीति ओर अपराध - शोध ग्रन्थ 

गीतपंखी - वाल्ट विटमैन के सांग ऑफ़ माइसेल्फ का अनुवाद 

देवदूत - ख़लील जिब्रान के प्रोफेट का काव्यानुवाद 

लल्लेश्वरी -  शोध ग्रन्थ 

हिंदी साहित्य  में  जीवनी लेखन ओर आवारा मसीहा - शोध ग्रन्थ 



पुरस्कार ओर  सम्मान -


१९८७ - पंडित हंस कुमार तिवारी सम्मान 

१९८९ - डॉ आंबेडकर फ़ेलोशिप 

१९९२ - संस्कृति विभाग  सीनियर आर्टिस्ट ,फ़ेलोशिप से मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा सम्मानित 

१९९८ - पंडित गोविन्द वल्लभ पंत सम्मान

२००० - राष्ट्रीय हिंदी सेवा सहस्त्राब्दी सम्मान 

 




जन्म - ५ मार्च ' १९५९, ग्राम बेल्हूपुर , ज़िला -इटावा , उत्तर प्रदेश 

निधन - २७ जून ' २०१७  , दिल्ली  



NOTE - उनके सुपुत्र श्री अन्वय को उनके सहयोग के लिए शुक्रिया।